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Showing posts from 2017

हाइबरनेशन में इश्क़

बादलों की छुपन छुपाई, आसमां में थिरकता चाँद, ‘फॉरएवर इन लव’ की धुन और इन सबकी साक्षी ‘वो’ - कुरेदती रही दिल-दिमाग-मन कहीं से तो फूटे सोता प्रेम का या किसी कोने में अब भी बचा हो इश्क़ एक कतरा ही सही- हर खोज मुकम्मल हो लेकिन ये ज़रूरी तो नहीं। काश! ज़िन्दगी कोई साज होती, जिसे वो साध लेती यहाँ ज़िन्दगी तो रस्सी है, संतुलन बनाना आसान कहाँ ! ‘फॉरएवर इन लव’ की धुन पर नाचता चाँद भी आखिर डूब गया… अँधकार का ये संगीत ‘केनी’ के सैक्सोफोन की धुन से ज़्यादा मादक था । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

पराठा VS पास्ता (रहे न रहे, हम महका करेंगे...)

उन दिनों पास्ता खाने का और बनाने का शौक चरम पर था। यूट्यूब पर देखती रहती पास्ता कितने तरीके से बनाया जा सकता है फिर बनाने की कोशिश करती। बिना ज़्यादा कैलोरी के कैसे क्रीमी पास्ता बनाया जाए या फिर पास्ता को कैसे ज़्यादा हेल्थी बनाया जाए इसी कोशिश में जुटी रहती, और अक्सर सफल भी होती। एक अकेले के लिए बनाना कोई मुश्किल काम भी नहीं था। आरा गई तो रविवार की सुबह तय हुआ कि मैं पास्ता बनाऊँगी। मम्मी भी खुश कि खाने में कुछ नया प्रयोग किया जा रहा। मेरी मम्मी स्वादिष्ट खाना बनाने में माहिर थी। कितनी भी बीमार हों ज़रा सी ठीक होते हीं रसोई में चुपचाप कुछ चटपटा बनाकर रख देती। उन्हें ख़ुशी होती थी जब उनके बच्चे स्वादिष्ट खाना बनाते थे। इसलिये मम्मी खुश थी। पास्ता बना, सुबह का नाश्ता सर्व हुआ। मम्मी एक चम्मच खाईं। मैंने विजयी मुस्कान के साथ पूछा- “कैसा बना है?” मम्मी बोली -“बहुत बढ़िया बेटा” फिर पूछा मैंने- “और ले आएं ?” तब वे बोली “हमरा खातिर दुगो पराठा बना द आ बैगन चाहे परवल के चोखा।” अब मेरा मुँह चोखा जैसा बन गया था।  मैंने पूछा -”पसंद नहीं आया” वे बोलीं-”ना बेटा बहुत बढ़िया बना है, लेकिन हमको पराठा

अनंत चतुर्दशी-संस्मरण

का मथS तार... क्षीर समुद्र...का खोजS तार...अनंत भगवान... मिललें... ना। यूँ तो हमारे घर में पूजा पाठ ज़्यादा नहीं हुआ करता था। 'बाबा-अम्मा' दयालबाग से जुड़े थे...लेकिन कुछ पूजा हमारे घर में ज़रूर होती, उनमें से एक अनंत चतुर्दशी की पूजा भी थी। सुबह-सुबह बालकनी धो दी जाती। वहीँ पूजा का सारा इंतज़ाम होता। हमें जो इंतज़ार रहता वो था 'चनामृत' का और साथ ही 'क्षीर समुद्र' को मथने का। 'अनंत पूजा' और 'कलम दवात' की पूजा का चनामृत बाकि पूजा के चनामृतों की तुलना में थोड़ा ज़्यादा स्वादिष्ट होता  है  😉 । (बचपन से जीभचटोर वाली प्रकृति है) खीरा से दूध और पानी के 'क्षीर समुद्र' को मथा जाता, जिसमें से सोने के अनन्त भगवान निकलते, जो पहले ही रख दिया जाता। मोहल्ले भर से लोग हमारे घर पर अनंत पूजा के लिए आते। पूजा के बाद रंग बिरंगा अनन्त हमारे बाजुओं में बांधा जाता। वो अनंत मुझे बहुत सुन्दर लगता था। पूजा के बाद सिवई, दोस्ती पराठा और अच्छी सी सब्जी का भोग लगता, हालांकि पण्डी जी नमक नहीं खाते, लेकिन घर के सदस्यों को नमक खाने पर कोई पाबंदी नहीं थी। अम्मा हमें बतात

जाने अब कब उगेगा इन्द्रधनुष !

जब तेज़ बारिश होगी, धूप भी छिटकी होगी, बादल की ओट में, सूरज थोड़ा सुस्ताएगा, और रश्मियाँ पानी संग  रास रचाएंगी- तब नभ मुस्काएगा और इन्द्रधनुष उग आएगा... यही कहा था उसने- झूठ कहा था उसने ! सालों से आकाश बेरंग हुआ जाता है। सालों से मौसम बदरंग हुआ जाता है। आज भी बारिश थी और धूप भी छिटकी थी बादल की ओट लिए सूरज खड़ा था धुंए से उसका दम घुट रहा था। रश्मियाँ, पानी,नभ, सब खामोश हुए, पौधों की हरियाली अब जाती रही। नभ नहीं, मुस्कुराया, आज भी, इन्द्रधनुष, नहीं उग पाया,आज भी ! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

एक युवा आइकॉन की मौत....

३२ साल के मुकेश असम के रहने वाले थे। 2012 में ऑल इंडिया में 14वीं रैंक लाने वाले मुकेश पांडेय तेज तर्रार, बेदाग और कड़क अफसर थे। उन्हें वर्ष 2015 में संयुक्त सचिव रैंक में प्रमोशन मिला था। इतने काबिल और देश के सबसे कठिन परीक्षा में सफलता पाने और प्रशिक्षण के बाद भी अगर व्यक्ति अपने तनाव से नहीं जूझ सका तो  ये किसी आश्चर्य से कम नहीं।  2012 बैच के आईएएस अधिकारी मुकेश पांडेय को 31 जुलाई को बक्सर का डीएम बनाया गया था। एक जिलाधिकारी के तौर पर यह उनकी पहली पदस्थापना थी। इसके पहले वे बेगूसराय के बलिया अनुमंडल में एसडीएम व कटिहार में डीडीसी के पद पर सेवाएं दे चुके थे। गुरुवार को दिल्ली में उनके आत्महत्या की खबर ने सभी को सकते में डाल दिया। उन्होंने किन कारणों से आत्महत्या जैसा कदम उठाया यह पता नहीं चल सका है, हालांकि सूत्रों का कहना है कि उन्होंने अपने फोन से एक सन्देश भेजा था जिसमें आत्महत्या की बात लिखी गयी थी।   उन्होंने सन्देश में लिखा था - “मैं जीवन से निराश हूं और मानवता से विश्वास उठ गया है।” सोचने और विचारने की बात है कि आखिर क्या वजह रही होगी जो इतना कड़क और बेदाग़ अफसर न

हम सब मशीन तो नहीं बन रहे?

अशिक्षा, गरीबी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से जूझते हुए भारत ने आज़ादी के सत्तर साल पूरे कर लिए हैं। सौर्य ऊर्जा के क्षेत्र में जहां भारत का स्थान दूसरा है वहीं भारत की सैन्य शक्ति विश्व की सैन्य शक्तियों में तीसरे स्थान पर है। तकनीक के मामले में भी भारत पीछे नहीं है।  भारत की तकनीक दुनिया की सर्वाधिक आधुनिक तकनीकों में से एक है। भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी बड़ी सफलता प्राप्त की है। हमारा देश हर क्षेत्र में आगे बढ़  रहा है, लेकिन आगे बढ़ने की इस दौड़ में भारत के सांस्कृतिक मूल्यों का भी ह्रास भी हो रहा।  कहीं न कहीं हम भारत के मूल स्वरुप से दूर हो हैं।  एक समय था जब देश में संयुक्त परिवार की परम्परा थी। आगे बढ़ने की दौड़ में एकल परिवार तक सिमट कर रह गए हम और फिर अकेलापन और अवसाद जैसी बीमारियों ने पाँव फैलाना शुरू किया। अगर संयुक्त परिवार होता तो शायद आशा साहनी कंकाल में तब्दील नहीं होती। बेटे से खुद को साथ रखने का गुहार नहीं लगाती। सब यहीं छूट जाएगा, साथ कुछ नहीं जाएगा... न दाम, न चाम, फिर ये पैसे की भूख...आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में हम अपनी संवेदनशीलता खो तो नहीं रहे हैं। आशा साह

अनंत की ओर...

मेरे विचारों की कोमलता पर अक्सर हावी हो जाते हैं तुम्हारे अनगढ़ विचार तुम्हारी संगत में मन सूफी सा हो गया और तुम रहे औघड़ के औघड़ कहाँ सोच पाती कुछ अलग से तुम्हारे लिए अक्सर सैकड़ों तितलियाँ मेरे इर्द गिर्द पंख फैलाए बे-परवाह उड़ती हैं इन्हें छोड़ जाते हो अक्सर मेरे आस पास रंग भरने को दूर मुस्कुराते फूलों की सुगंध पहुँच हीं आती है मुझ तक, तय है इसमें भी हाथ तुम्हारा ही है, ये तुम ही तो हो जो ले आते हो इन्हें मेरे करीब। ज़िन्दगी के साथ दौड़ लगा रही हूँ, जानती हूँ एक दिन तुम आओगे फिर ये रफ़्तार थम जाएगी हमेशा के लिए लिबास, चेहरा और किरदार -सब बदल जाएंगे जन्म लेगी एक नई कहानी- या फिर शायद ये कहानी आखिरी हो ! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

वक़्त की क़ैद में ज़िन्दगी है मगर...

राह कंटीली और पथरीली, हौस’ला टूट रहा है, जिस्म-रूह-अहसास-बंधन,सबकुछ छूट रहा है। सुर्ख सपने और फूल सुनहरे, ये तो बीती बातें हैं, कथा-कहानी, खेल पुराने, खो गई ये सौगातें हैं। मौत लगे है अब रूमानी, आँखों से न गिरता पानी। दुःख-चिंता से टूटा नाता, राग-रंग अब कुछ न भाता । यादों का प्यारा आँगन अब पीछे छूट रहा है, राह कंटीली और पथरीली, हौस’ला टूट रहा है। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

‘आई ऍम फैन युसु’

इ सी साल अप्रैल में चीन की रहने वाली फैन युसु चर्चा में आयी।आत्मकथात्मक निबंध ‘आइ ऍम फैन युसु’ के ऑनलाइन प्रकाशन के साथ ही इसकी लेखिका फैन युसु रातोरात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गयी हैं। ये घटना इसी वर्ष अप्रैल की है, जब घरेलु नौकरानी का कार्य करने वाली फैन युसु की आत्मकथा को ऑनलाइन लाखों लोगों ने पढ़ा और सराहा।  देखते-देखते उनकी ये कहानी वायरल हो गयी। चौवालीस साल की फैन युसु ने सपने में भी ये नहीं सोचा होगा कि उनका लिखा लोगों को इतना पसंद आ सकता है। ‘आई ऍम फैन युसु’ के ऑनलाइन प्रकाशन के चौबीस घंटे के अंदर लाखों लोगों ने इसे साझा किया और उस पर बीस हज़ार से ज़्यादा टिप्पणियां आयीं। रातोरात युसु सफलता के शिखर पर पहुँच गयी। दिलचस्प ये कि इतनी लोकप्रियता को हैंडल कर पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा और वे अपने  प्रशंसकों और मीडिया से बचने के लिए  छिपने का जतन करने लगी थीं। एक किसान की बेटी होने के नाते बचपन उनका गाँव में बीता। पढ़ने की शौक़ीन युसु पांच भाई बहनों में सबसे छोटी हैं। फैन युसु की कहानी किसी फ़िल्मी कहानी सी लगती है। गाँव में पली-बढ़ी एक स्त्री के संघर्ष की कहानी…उसकी जिज

ख्वाहिशें !

ह र रोज़ कानों में फूँक देते हो अनगिनत ख्वाहिशें  ! कहाँ से लाऊँ वो जादुई छड़ी - जो पूरी कर सके तुम्हारे सारे ख्वाब जो रात के अँधेरे को बदल दे भोर की पहली किरण में सूखे पेड़ में फिर से जान फूँक दे  तपते सूरज को भी शीतलता की छाँव दे दे खामोश होती गौरैयों को फिर से चहकना सीखा दे बिलखते बचपन को जादू की झप्पी दे जाए तुम ही कहो न कहाँ से लाऊँ ? उस सतरंगे फूल को देखा है कभी- अपनी दुनिया से बिछड़कर, सूखी टहनियों और ज़र्द पत्तों के बीच अटक जाता है कभी- कभी ज़मीं पर ठोकर खाता है तो कभी आसमाँ छूने निकल पड़ता है, तब तक -जब तक कि उसकी पंखुड़ियाँ सूख कर बिखर ना जाएँ- वो, मैं हूँ! जाने कब से हूँ इस सफ़र में, पंखुड़ियों के सूख कर बिखरने के इंतज़ार में - वो मैं ही तो हूँ । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

मनुष्य एक सामाजिक नहीं सामूहिक प्राणी है!

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी नहीं बल्कि मनुष्य एक सामूहिक प्राणी है। पहले जाति विशेष का समूह, फिर धर्म विशेष, फिर गाँव विशेष, शहर विशेष, क्षेत्र विशेष, राज्य विशेष, भाषा विशेष, देश विशेष, विचारधारा विशेष- सुविधानुसार हम सब अपने-अपने समूह में शामिल रहते हैं। इतना ही नहीं ये सामूहिक विभेद का काम विद्यालय और महाविद्यालय स्तर पर भी चलता रहता है। बंटवारे का बीज तो हम सब बचपन से ही अपने मन में बोये रहते हैं। समय-समय पर कोई महापुरुष या स्त्री इसमें खाद पानी दे जाते हैं, और ये फलने फूलने लगते हैं। फेसबुक और व्हाट्सएप्प जैसे सोशल नेटवर्किंग प्लेटफार्म भी समूह बनाने की सहूलियतें दे रहा है। यहाँ भी लोग सामूहिक बँटवारे को बड़े प्यार से अपना रहे। अगर आपको सामूहिक बँटवारा पसंद नहीं तो भी लोग आपको बाँट कर ही रहेंगे। कोई आपको जातिगत समूह में शामिल करेगा तो कोई शहर, राज्य, पेशेगत समूह में शामिल करेगा, लेकिन बँटवारा ज़रूरी है। बँटवारे के बाद शुरू होता है सामूहिक बड़ाई और बढ़ावा देने का सिलसिला। तू मेरी पीठ थपथपा मैं तेरी थपथपाऊँ, और अगर किसी और समूह वाले ने किसी दूसरे समूह के लोगों पर टिप्पणी कर दी तो 

सपने ही तो हैं...

इन दिनों अक्सर कुछ अजीब सा सपना आता है। कभी उन सपनों में राजस्थान की तंग गलियों में लोगों से रास्ता पूछते हुए खुद को नंगे पाँव अकेले चलते हुए देखती हूँ, तो कभी ऐसी जगह खुद को देखती हूँ, जहां चारों ओर सिर्फ बर्फ है। उस दौरान मैं अपने ऊपर गिरते बर्फ के फाहों को महसूस भी करती हूँ। कभी-कभी ये भी देखती हूँ कि किसी लाश को कँधे पर उठाए, उसके भार को महसूस करते हुए अनंत में चली जा रही। कभी कभी सपने में ही कुछ याद करने की कोशिश करती हूँ और फिर किसी गहरे कुँए में गिरती चली जाती हूँ। एक रोज़ बिल्कुल सुबह सुबह देखी पापा किताब लेकर कुछ पढ़ा और समझा रहे थे...कुछ समझ नहीं आया। क्या सपने भी डिकोड हो सकते हैं क्या? © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

कहानी 'समानांतर' का प्रकाशन

http://www.grihshobha.in/parallel-1998 आज ये कहानी भी मिल गई, जिसने मेरे अंदर ये आत्मविश्वास जगाया कि मेरा लिखा प्रकाशन योग्य है...प्रथम कहानी जिसके प्रकाशन पर मेहनताना भी मिला था....संपादक को धन्यवाद....😊😊 http://www.grihshobha.in/parallel-1998 © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

प्रकाशित कहानी 'सीलन'

संपादक का धन्यवाद... http://www.sarita.in/story/seelan कोई भीड़ नहीं, ना हीं कोई कारवाँ, धीमी गति से अग्रसर हूँ...कदम दर कदम😊😊...कहानी लेखन के लिए जिसने ज़ोर दिया था, प्रेरित किया था, अचानक गायब... सोची थी अब लिख नहीं पाऊँगी कभी, लेकिन लेखन अब भी जारी है.. ये कहानी प्रकाशन में भेजने के बाद भूल ही गई थी... अचानक एक दिन पता चला कि सरिता में ये कहानी प्रकाशित हो चुकी है... http://www.sarita.in/story/seelan © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

यादें...

उन दिनों भी सकरात के बाद ऐसी ही धूप हुआ करती। हम बच्चे छत पर धमा चौकड़ी करते। मम्मी और पड़ोस की चाचियाँ छत पर बैठ कर या तो आचार के लिए निम्बू घिसती या फिर साग तोड़ती। निम्बू घिसने के चलते आस पास का हिस्सा पीला पड़ जाता था।हमें भी कहा जाता पर हम बचपन से ही कामचोर ठहरे, जान बचाकर भाग लेते थे। पापा को चने का साग बहुत पसंद था और पालक बिलकुल भी नहीं खाते थे, मम्मी की पसंद पापा की पसंद के बिलकुल उलट थी...सच कहूँ तो सिर्फ खाने के मामले में ही नहीं बल्कि हर मामले में दोनों की पसंद अलग थी। लेकिन मम्मी पापा की पसंद का ख्याल रखती और पापा मम्मी की पसंद का। चने के साग की सफाई और बनाना बहुत समय लगाने वाला काम था। मीठी धूप में मम्मी और चाचियों की बातें चलती रहती, हम सब ऊधम मचाते रहते। अचानक किसी की इच्छा हो जाती कच्चा ही चने के साग को खाने की। भरवां मिर्च का आचार ,आम का आचार, नमक और निम्बू के साथ चने के साग की सफाई और खवाई शुरू हो जाती। उसमें हमारा भी योगदान होता। वो दौर था डेक और लाउड स्पीकर वाला। दिनभर क़यामत से क़यामत तक, आशिकी और मैंने प्यार किया, फूल और काँटे के गाने बजते रहते।सिंघाड़ा का आचार औ

महिला दिवस और एक सशक्त महिला

महिला दिवस पर कार्यक्रमों, संदेशों, कविताओं की झड़ी लग गई है। सारे लोग अपने अपने तरीकों से महिलाओं को सशक्त करने/होने की बात कर रहे। महिला दि वस पर स्री सशक्तिकरण का जितना भी राग अलापें लेकिन ये सच है कि एक सशक्त महिला सबकी आँखों का काँटा होती है। जब वो अपने बलबूते आगे बढ़ती है, उसे कदम दर कदम अपने चरित्र को लेकर अग्नि परीक्षा देनी होती है। अगर वो सिंगल/अनब्याही है, तो हर रोज़ उसे लोगों की स्कैनर दृष्टि से गुज़रना पड़ता है। अक्सर पुरुषों की दृष्टि उसमें अपने ऑप्शन्स तलाशती रहती हैं। उम्र, जाति, खानदान यहां तक कि उनके सेक्सुअल अभिरुचि पर भी सवाल किये जाते हैं।  एकबार एक बहुत ही वरिष्ठ व्यक्ति, जो दिल्ली  में वरिष्ठ पत्रकार है, ने पूछा था, “तुमने शादी नहीं की? अकेली रहती हो या लिव इन में ? तुम्हारा पार्टनर कौन है? “ मतलब ये कि “एक महिला अकेले रहती है, कमाती है, खाती है “  ये बात किसी से हजम नहीं होती। तीस साल की होने के साथ ही शादी का ठप्पा लगना ज़रूरी हो जाता है, अगर शादी नहीं की और हँसते हुए पूरे उत्साह के साथ  जीवन गुज़ार रही तो लोगों को वैसी महिलाएं संदिग्ध नज़र आने लगती हैं। लोग अक्सर

प्रेम का रंग

सेमल की लालिमा  बिखर गयी है इस जानिब टेसू भी दहकने लगे होंगे तुम्हारी तरफ सुनो, थोड़े से फूल मसल देना कागजों पर शब्दों में ताज़गी आ जाएगी। मुट्ठी भर टेसू बिखेर देना हवाओं में नफरत के रंग धूमिल पड़ जाएंगे । और हाँ, थोड़े फूल बचा लेना अपने लिए खुश रहने की वजह मिल जाएगी। टेसू के फूल अब मेरा इंतज़ार कभी नहीं करेंगे ! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

लेखन बनाम अनुभव

फे सबुक के एक पोस्ट पर आज मेरा ध्यान अटक गया।  इस पोस्ट में ये लिखा गया था कि कविताएँ आमतौर पर किसी पंक्ति से प्रेरित भी हो सकती है। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि जो लिखा जा रहा है उसका अनुभव किया ही जाए। मतलब सुखी इंसान दर्द भरी कविताएँ कर सकता है और दर्द में डूबा इंसान ख़ुशी की ग़ज़लें कह सकता है... क्या सचमुच ऐसा है? अगर वाकई कोई कविता बिना अनुभव के सिर्फ किसी पंक्ति से प्रेरित होकर लिखी जाए तो क्या वो आत्मा रहित नहीं होगी? क्या उसमें कृत्रिमता नहीं होगी ? एक कार्यक्रम के सिलसिले में एक बार मेरी मुलाक़ात एक वरिष्ठ लेखक से हुई। वे अपना अनुभव साझा कर रहे थे। उन्होंने बताया "लोग कहते हैं कि कल्पना के ज़रिये कुछ भी लिखा जा सकता है, लेकिन मैं कहता हूँ कि हर लेखन के लिए अनुभव ज़रूरी है।" उन्होंने किसी अखबार में छपी एक कहानी का हवाला देते हुए बताया कि "कहानी में बच्चा बहुत गरीब होता है और जाड़े से बचने के लिए एक मुर्दे से लिपट के सो जाता है। सुनने में या पढ़ने में कहानी बड़ी मार्मिक है लेकिन जिसने इसका अनुभव किया है वो बता सकता है कि मुर्दा गर्म नहीं बिलकुल ठंढा होता है ज

पुल और ज़िन्दगी

मे ट्रो स्टेशन से बाहर निकलते हुए पैदल पार पुल से गुज़रते हुए अनेक ज़िंदगियाँ दिख जाती हैं- पुल के शुरुआत में ही मायूसी ओढ़े एक औरत बैठती है आँचल में उसके पड़े होते हैं कुछ सिक्के उसके पास ही कंचे खेल रहा होता है उसका तोतला बच्चा जब भी कोई पास से गुज़रता है, बच्चे के चेहरे पर दर्द उभरता है कंचा छोड़, हाथ पसारे भागता है उसके पीछे दूसरे हिस्से में बैठता है - गंदे कपड़ों में,गन्दी सी चादर बिछाए बैसाखी वाला वो युवक, जो करता है संवेदनाओं का सौदा हर गुजरने वाले को अपनी बैसाखी दिखाता है करुणा के बदले में माँगता है चन्द सिक्के या गुलाबी नोट! पुल के बीच में अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ बैठती है और एक औरत गहरी नींद में सोया बच्चा सिक्का बन जाता है ! पुल और सीढ़ियों के बीच खिलौने और फलों की छोटी छोटी रेहड़ियां भी हैं। कितने सपने हर रोज़ यहां जन्म लेते हैं, कितनी मंज़िलों के रास्ते इसी पुल से गुज़रते हैं, जानें कितनी दोस्ती हर रोज़ यहां बनती और बिगड़ती है कितने प्रेम खामोशी से आगे बढ़ते हैं इसी पुल पर। एक बूढ़ा भी इसी पुल पर रहता था, दिन-प्रतिदिन क्षीण हो रही थी उसकी सांसें

एक उदास शाम

ए क दिन- फूल बेरंग होंगे और बारिश सूखी चिड़ियाँ नहीं सुनाएंगी गीत कोई गिलहरी मुझसे नहीं बतियाएगी पौधे मुझे देखकर झूमेंगे नहीं । वितृष्णा से गुज़रते हुए तब, मैं गढ़ लूँगी अपनी दुनिया- तुम्हारी तरह । करुँगी सबसे बातें कि जैसे कर रही हूँ मैं बातें, खुद से। वहाँ हर चीज़ होगी मेरे मुताबिक़ जो ज़िंदा नहीं वो जीवित होंगे जो पसंद नहीं वो मृत होंगे । रहने लगूँगी मैं कल्पनाओं के घर में बिल्कुल तुम्हारी तरह, और फिर एक दिन- मिटा डालूंगी सत्य और भ्रम के बीच की रेखा, खत्म कर दूँगी सूक्ष्म से विराट का अंतर, तय कर लूँगी अंत से अनंत की दूरी, और विलीन हो जाऊंगी, मैं भी, अनंत में- कि अब समझ पा रही, तुम्हारी सोच को, तुम्हारी तरह- तुम्हारे जाने के बाद । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!