1. मौसम बदलने लगा है। मौसम बदलने का पता तब चलता है जब खरीदारों की फूलों को लेकर पसंद बदलने लगती है, जैसे अक्टूबर-नवंबर में पिटूनिया, कैलेंडुला, गेंदा के खरीदार बढ़ जाते हैं तो गर्मियों में उड़हुल, सूरजमुखी, डहेलिया को खरीदने वालों की तादाद बढ़ जाती है। कुछ फूल सालों भर बिकते हैं तो कुछ मौसमानुसार। यूँ तो मुझे सभी मौसम पसंद है, पर बरसात और बसंत विशेष प्रिय है। ये मौसम होते हैं जब फूलों की महक सारे गिले-शिकवे, दुःख-कष्ट से हमें दूर ले जाती है। जिन पौधों में साल के अन्य महीनों में फूल नहीं लगते हों वे भी इन महीनों में पल्लवित-सुभाषित हो उठते हैं। रंग-बिरंगे फूलों को देख कितनी ही कल्पनाएं साकार हो उठती हैं। ये फूल कभी झालर तो कभी कंगूरे, कभी बिंदिया तो कभी झुमके से दिखते हैं। बचपन में बड़ी पत्तियों वाले फूलों को नाखून पर लगाकर उन्हें किनारे से बारीकी से कुतरकर नेल पॉलिश-सा सजाकर कितना आनंद आता था। कनेर के पीले-गुलाबी फूलों को उंगलियों में लगाकर लंबे नाखूनों की चाहत पूरी हो जाया करती थी। रंग छोड़ते लाल-गुलाबी छोटे-छोटे नौ-बजिया और दस-बजिया फूलों को गालों-होठों पर रगड़कर लिपस्टिक और लाली की तर
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’