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Showing posts from 2007
दिल्ली ... ऐसा शहर जहाँ सभी भाग रहे हैं. कोई काम के लिए भाग रहा है तो कोई काम खोजने के लिए भाग रहा है। घर के लिए समय नही, अपनों के लिए समय नही। ऐसा लगता है कि सारे रिश्ते यहाँ आकर छूटते चले जाते है। भावनाओ में बहने का भी समय नही। कभी चाही थी ऐसी ही जिन्दगी, पर अब ऐसा लग रहा है जैसे ऐसी जिन्दगी से तो मेरे आरा कि जिन्दगी ही भली थी । कम से कम वहाँ अपनों के लिए समय तो था। ज़रुरात्मंदो कि सहायता तो कर सकती थी।

स्कूल कि यादें

नीले आकाश में यादों का पंछी उड़ता चला जाता है और याद आता है मेरा स्कूल और नीम का वो पेड ईमली के पत्ते और बेल से लदे पेड़ फूलों की क्यारी मिटटी कि गलियारी टीचर कि डांट आलू का चाट होम्सईन्स की घंटी में हमारी नौटंकी डांस के पीरियड मे स्कूल से भागने की टंटी मुझको तो याद है प्यार की वो रेल पेल क्षण में झगड़ना और क्षण में मेल । आम के टीकोले हम थे कितने भोले बिल्कुल मंझोले । बादाम का वो पेड छत का खपरैल टबिल टेनिस का खेल बिर्जा जीजी का जेल । टिफिन मे कबड्डी अचार की छीना झपटी आपस मे लड़ना फिर सबको मनाना रोना और रुलाना फिर हँसना हँसाना क्या भूल सकना आसान है बिता वो जमाना ?

अरमां

ऊंचे पर्वतो से बादलों को टकराते देखा सागर की लहरों को बार बार तट पर आते देखा दिल मे एक अरमान जागा काश। मैं बादल होती और तुम पर्वत या फिर मैं लहरें होती और तुम किनारा।

संदेश

सर्द हवाएं बहती है कानों में कुछ कुछ कहती है ना हार कहीं तुम रूक जाओ ऐसा वो संदेशा देती हैं । चट्टान को देखा है तुमने कितने ही वारों को सहता पर फिर भी अपने जड़ पर पल पल प्रतिपल है डटा रहता ।

यादें

मेरा घर मेरे अपने और वो मीठी बातें चाय की चुस्कियों के साथ जब कटती थी दिन और रातें यादें और बस यादें । मेरा कमरा मेरा बिस्तर और वो दीवारें जिसके इस पार और उस पार सजती थी ढेरों तस्वीरें बार बार मेरी बगिया इस बार कह रही थी बार बार करो मेरा श्रृंगार फिर से करो मेरा श्रृंगार । माँ की झिड़की पापा का ग़ुस्सा क्यो याद आता है बार बार ।