ह र रोज़ कानों में फूँक देते हो अनगिनत ख्वाहिशें ! कहाँ से लाऊँ वो जादुई छड़ी - जो पूरी कर सके तुम्हारे सारे ख्वाब जो रात के अँधेरे को बदल दे भोर की पहली किरण में सूखे पेड़ में फिर से जान फूँक दे तपते सूरज को भी शीतलता की छाँव दे दे खामोश होती गौरैयों को फिर से चहकना सीखा दे बिलखते बचपन को जादू की झप्पी दे जाए तुम ही कहो न कहाँ से लाऊँ ? उस सतरंगे फूल को देखा है कभी- अपनी दुनिया से बिछड़कर, सूखी टहनियों और ज़र्द पत्तों के बीच अटक जाता है कभी- कभी ज़मीं पर ठोकर खाता है तो कभी आसमाँ छूने निकल पड़ता है, तब तक -जब तक कि उसकी पंखुड़ियाँ सूख कर बिखर ना जाएँ- वो, मैं हूँ! जाने कब से हूँ इस सफ़र में, पंखुड़ियों के सूख कर बिखरने के इंतज़ार में - वो मैं ही तो हूँ । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’