महिला दिवस पर कार्यक्रमों, संदेशों, कविताओं की झड़ी लग गई है। सारे लोग अपने अपने तरीकों से महिलाओं को सशक्त करने/होने की बात कर रहे। महिला दिवस पर स्री सशक्तिकरण का जितना भी राग अलापें लेकिन ये सच है कि एक सशक्त महिला सबकी आँखों का काँटा होती है। जब वो अपने बलबूते आगे बढ़ती है, उसे कदम दर कदम अपने चरित्र को लेकर अग्नि परीक्षा देनी होती है। अगर वो सिंगल/अनब्याही है, तो हर रोज़ उसे लोगों की स्कैनर दृष्टि से गुज़रना पड़ता है। अक्सर पुरुषों की दृष्टि उसमें अपने ऑप्शन्स तलाशती रहती हैं। उम्र, जाति, खानदान यहां तक कि उनके सेक्सुअल अभिरुचि पर भी सवाल किये जाते हैं। एकबार एक बहुत ही वरिष्ठ व्यक्ति, जो दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार है, ने पूछा था, “तुमने शादी नहीं की? अकेली रहती हो या लिव इन में ? तुम्हारा पार्टनर कौन है? “ मतलब ये कि “एक महिला अकेले रहती है, कमाती है, खाती है “ ये बात किसी से हजम नहीं होती। तीस साल की होने के साथ ही शादी का ठप्पा लगना ज़रूरी हो जाता है, अगर शादी नहीं की और हँसते हुए पूरे उत्साह के साथ जीवन गुज़ार रही तो लोगों को वैसी महिलाएं संदिग्ध नज़र आने लगती हैं। लोग अक्सर उनकी ज़िन्दगी में घुसपैठ करने का प्रयास शुरु कर देते हैं। स्त्रियां खुद भी ऐसी स्त्रियों के खिलाफ बोलने से बाज़ नहीं आती। एक महिला सहकर्मी ने ऑफिस ज्वाइन करने के साथ ही मुझसे इतनी तहकीकात की थी कि मुझे खुद पर ही डाउट होने लगा था। बाद में वही महिला किसी और से मेरे बारे में बातें कर रही थी, जो मुझ तक पहुँच गई। मुझे उन बातों पर सिर्फ हँसी ही आई। सोशल साइट पर भी कुछ महान लोग ऐसे है जो ये समझते है कि फेसबुक पर जो भी स्त्रियाँ है वो उनकी फ्लर्टिंग के लिए ही हैं । व्हाट्स एप्प पर वे स्त्रियों को कुछ भी सन्देश भेज सकते हैं। अगर स्त्रियाँ हँस कर बात कर ले तो वो उनकी रज़ामंदी समझ लेते हैं। वे ये समझ नहीं पाते कि एक स्त्री अकेले भी अपनी सम्पूर्णता में जी सकती है, अपने अंदर की ऊर्जा को एक नई और सकारात्मक दिशा दे सकती है। जब एक स्त्री मुक्त हो जाती है तो उसे किसी का डर नहीं होता, पुरुष इसी निर्भीक स्त्री से डरता है। पुरुष वर्चस्व को स्वीकारने वाली स्त्रियां भी ऐसी मुक्त और निर्भीक स्त्रियों से डरती हैं।
नब्बे फीसदी से ज़्यादा लोग ऐसे ही हैं जो एक महिला को उसके सशक्त रूप में कभी स्वीकार नहीं कर पाते, भले महिला सशक्तिकरण का कितना भी स्वांग रच लें, लेकिन उन्हें स्त्री के रूप में एक गुलाम ही चाहिए, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक रूप से गुलाम स्त्री।
नब्बे फीसदी से ज़्यादा लोग ऐसे ही हैं जो एक महिला को उसके सशक्त रूप में कभी स्वीकार नहीं कर पाते, भले महिला सशक्तिकरण का कितना भी स्वांग रच लें, लेकिन उन्हें स्त्री के रूप में एक गुलाम ही चाहिए, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक रूप से गुलाम स्त्री।
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