जब से ब्लू लाइन शुरू हुआ, तब से हमारे लिए कहीं भी आने-जाने का सबसे सुगम मार्ग मेट्रो ही रहा है. घर से दफ्तर तक के मेट्रो स्टेशन...कितने कदम पर कौन सी कोच मिलेगी...ये सब रट सा गया है. इस कदर सारे रास्ते मानस पटल पर अंकित हैं कि आँखें बंद हो तो भी घर से दफ्तर और दफ्तर से घर पहुँच जाऊं. ज़रा सा भी कुछ इधर से उधर हुआ तो वजह ढूंढने लग जाती हूँ. हफ्ते भर पहले की बात है, रात के समय ऑफिस से घर लौट रही थी तब पहली बार मेट्रो में उद्घोषणा सुनी 'सुप्रीम कोर्ट स्टेशन'. मैं घबरा गयी, "यह कौन सा स्टेशन आ गया? गलत रूट की मेट्रो में तो नहीं चढ़ गयी?" मेट्रो का दरवाज़ा खुलते ही मैं बाहर झाँकने लगी. सामने बोर्ड लगा था 'सुप्रीम कोर्ट'. मैं अचकचाई. बोर्ड के एक तरफ मार्क था 'मंडी हाउस' तो दूसरी ओर मार्क था 'इन्द्रप्रस्थ'. यह देख कर राहत मिली कि मैं गलत रूट कि मेट्रो में नहीं हूँ. मोबाइल पर गुगल किया तो पता चला इस बदलाव का फैसला दिल्ली सरकार की नामकरण समिति ने 31 दिसम्बर को ही किया था. 'प्रगति मैदान' मेट्रो स्टेशन का नाम अब भी जुबां पर है और का
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’