Skip to main content

लेखन बनाम अनुभव


















फेसबुक के एक पोस्ट पर आज मेरा ध्यान अटक गया।  इस पोस्ट में ये लिखा गया था कि कविताएँ आमतौर पर किसी पंक्ति से प्रेरित भी हो सकती है। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि जो लिखा जा रहा है उसका अनुभव किया ही जाए। मतलब सुखी इंसान दर्द भरी कविताएँ कर सकता है और दर्द में डूबा इंसान ख़ुशी की ग़ज़लें कह सकता है... क्या सचमुच ऐसा है? अगर वाकई कोई कविता बिना अनुभव के सिर्फ किसी पंक्ति से प्रेरित होकर लिखी जाए तो क्या वो आत्मा रहित नहीं होगी? क्या उसमें कृत्रिमता नहीं होगी ?
एक कार्यक्रम के सिलसिले में एक बार मेरी मुलाक़ात एक वरिष्ठ लेखक से हुई। वे अपना अनुभव साझा कर रहे थे। उन्होंने बताया "लोग कहते हैं कि कल्पना के ज़रिये कुछ भी लिखा जा सकता है, लेकिन मैं कहता हूँ कि हर लेखन के लिए अनुभव ज़रूरी है।" उन्होंने किसी अखबार में छपी एक कहानी का हवाला देते हुए बताया कि "कहानी में बच्चा बहुत गरीब होता है और जाड़े से बचने के लिए एक मुर्दे से लिपट के सो जाता है। सुनने में या पढ़ने में कहानी बड़ी मार्मिक है लेकिन जिसने इसका अनुभव किया है वो बता सकता है कि मुर्दा गर्म नहीं बिलकुल ठंढा होता है जिससे ठंढ में लिपट के सोने की बात लिखना बेवकूफी ही होगी।" सच ही तो है ये बात।
 किसी ढाँचे में सिर्फ शब्दों को ठूंस देने भर से कविता या कहानी नहीं लिखी जा सकती, उसके साथ उतनी देर के लिए आपको जीना पड़ता है, उसी तरह से सोचना पड़ता है। हो सकता है उस परिस्थिति में आपकी प्रतिक्रिया और आपके अनुभव उस लेखक से अलग हो जिसने वो पंक्ति लिखी।   
 किसी को आइडियल मानने या फिर फॉलो करने का ये मतलब नहीं कि शब्दों और पंक्तियों  को उठा कर कविता लिख डालें, इससे क्षणिक वाहवाही तो मिल जाएगी पर रचना भीड़ में खो कर रह जाएगी।  उसमें आत्मा नहीं होगी। आप जब तक उस अनुभव से गुज़रते नहीं,उस गहराई को महसूस नहीं कर सकते। अगर आप उस गहराई को महसूस नहीं कर सकते तो आपका लेखन भी नकली लगेगा।  पाठक उससे कभी जुड़ नहीं पाएगा। बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं जो दूसरों के अनुभव से प्रेरणा लेकर कुछ ऐसा रच पाते हैं जो लोगों के दिलों में अपनी जगह बना सके।
ग़ालिब को ग़ालिब बनाने वाला उनका अनुभव रहा।  उन्होंने जैसे दिन गुज़ारे, उसने उनके शेर को एक अलग तरह की गहराई दी, जिससे लोग आज भी जुड़ जाते हैं । निराला हो, महादेवी हो या फिर बच्चन सबके अपने अनुभव ने ही उन्हें सबसे जुदा किया, वर्ना कल्पना तो चरम पर जाकर सबकी एक सी-हो जाती है। वही फूल, वही चाँद, वही हम-तुम।
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Comments

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब

यादें ....

14 फरवरी - प्रेम दिवस...सबके लिए तो ये अपने अपने प्रेम को याद करने का दिन है,  हमारे लिए ये दिन 'अम्मा' को याद करने का होता है. हम अपनी 'दादी' को 'अम्मा' कहते थे- अम्मा के व्यक्तित्व में एक अलग तरह का आकर्षण था, दिखने में साफ़ रंग और बालों का रंग भी बिलकुल सफेद...इक्का दुक्का बाल ही काले थे... जो उनके बालों के झुरमुट में बिलकुल अलग से नजर आते थे. अम्मा हमेशा कलफ सूती साड़ियाँ ही पहनती.. और मजाल था जो साड़ियों की एक क्रिच भी टूट जाए। जब वो तैयार होकर घर से निकलती तो उनके व्यक्तित्व में एक ठसक होती  । जब तक बाबा  थे,  तब तक अम्मा का साज श्रृंगार भी ज़िंदा था। लाल रंग के तरल कुमकुम की शीशी से हर रोज़ माथे पर बड़ी सी बिंदी बनाती थी। वह शीशी हमारे लिए कौतुहल का विषय रहती। अम्मा के कमरे में एक बड़ा सा ड्रेसिंग टेबल था, लेकिन वे कभी भी उसके सामने तैयार नही होती थीं।  इन सब के लिए उनके पास एक छोटा लेकिन सुंदर सा लकड़ी के फ्रेम में जड़ा हुआ आईना था।  रोज़ सुबह स्नान से पहले वे अपने बालों में नारियल का तेल लगाती फिर बाल बान्धती।  मुझे उनके सफेद लंबे बाल बड़े रहस्यमय

वसंतपुत्री का वसंत से पहले चले जाना...

ज बसे मैंने हिंदी साहित्य पढ़ना और समझना शुरू किया....तब से कुछ लेखिकाओं के लेखन की कायल रही जिनमें कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी का नाम सबसे ऊपर है। दिलचस्प ये कि दोनों ही लेखिकाओं से मिलने और साक्षात्कार करने का कभी सौभाग्य नहीं मिल सका। अपने कार्यक्रम के लिए दोनों से ही मेरी बातें हुई और दोनों ने ही हमेशा मना किया। 2015 से लेकर 2017 के बीच  कृष्णा सोबती जी से तो हर तीन चार महीने में  कॉल कर के उनकी तबियत पूछती और कैमरा टीम के साथ घर आने की अनुमति मांगती...अंततः मैं समझ गई वे इस इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं होंगी और मैंने उन्हें फोन करना बंद कर दिया। जब ज्ञानपीठ मिलने की खबर मिली तब ऐसा लगा कि शायद अब साक्षात्कार के लिए तैयार हो जाएं फिर पता चला कि तबियत खराब होने की वजह से उनकी जगह अशोक वाजपेयी जी ने उनका पुरस्कार ग्रहण किया।   वे मेरी प्रिय लेखिकाओं में से थीं और हमेशा रहेंगी। मैंने कम लेखिकाओं के लेखन में इतनी उन्मुक्तता देखी जो यहाँ पढने को मिली।  कई बार  उनकी कहानियों पर खासा विवाद भी हुआ क्योंकि  किसी लेखिका ने साहस के साथ स्त्री मन और उसकी ज़रूरतों पर  पहली बार  लिखा था।  एक वर