ज़िन्दगी कि उलझनों को सुलझानें कि कोशिश में जुटी हूँ, और ये उलझनें ऐसी हैं जितनी भी सुलझानें कि कोशिश करती हूँ उलझती चली जाती हैं । ज़िन्दगी बदलती जा रही है .... हमारे परिवार का सबसे मजबूत स्तम्भ धीरे धीरे कमज़ोर पड़ रहे हैं... मैं देख रही हूँ और सिर्फ देख सकती हूँ। कुछ नहीं कर सकती.... बचपन से मेरे आदर्श रहे हैं.... उन्हें हमेशा मज़बूत ही देखा है मैंने । लोग कहते हैं कि मैं उनके जैसी ही दिखती हूँ । आज काफी कमज़ोर दिखे। मैंने कभी सोचा नहीं था कि वे भी कमज़ोर हो सकते हैं। आँखें थोड़ी थकी थकी सी लगी... कुछ घर - शहर से दूर होने का अहसास तो कुछ बिमारी का असर... काफी कमज़ोर लगे । क्यों परेशानियां बढती चली जाती हैं...??? कुछ लिखना चाहती हूँ पर कभी-कभी शब्द साथ नहीं देते । कभी तो इश्वर पर सहज ही विश्वास हो जाता है और कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कि वो शायद नहीं है ।
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चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’