एक दिन-
चिड़ियाँ नहीं सुनाएंगी गीत कोई
गिलहरी मुझसे नहीं बतियाएगी
पौधे मुझे देखकर झूमेंगे नहीं ।
वितृष्णा से गुज़रते हुए तब,
मैं गढ़ लूँगी अपनी दुनिया-
तुम्हारी तरह ।
करुँगी सबसे बातें
कि जैसे कर रही हूँ मैं बातें, खुद से।
वहाँ हर चीज़ होगी मेरे मुताबिक़
जो ज़िंदा नहीं वो जीवित होंगे
जो पसंद नहीं वो मृत होंगे ।
रहने लगूँगी मैं कल्पनाओं के घर में
बिल्कुल तुम्हारी तरह, और फिर एक दिन-
मिटा डालूंगी सत्य और भ्रम के बीच की रेखा,
खत्म कर दूँगी सूक्ष्म से विराट का अंतर,
तय कर लूँगी अंत से अनंत की दूरी, और
विलीन हो जाऊंगी, मैं भी, अनंत में-
कि अब समझ पा रही, तुम्हारी सोच को, तुम्हारी तरह-
तुम्हारे जाने के बाद ।
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