सिगरेट के अधजले टुकड़ों सी सुलगती यादें तुम्हारे घुसपैठ की। उस ठिठुरती शाम- चोर दरवाज़े से दाखिल हुए थे 'तुम' और चंद दिनों में ही जमा लिया था कब्ज़ा मेरे मनःमस्तिष्क पर। विरोध किया था मैंने लड़ी भी थी तुमसे , लेकिन फिर मै भी तो समर्पित हो गयी थी एक लम्बे आत्मसंघर्ष के बाद। अब तो तुम्हारा होना उतना ही सच है - जैसे सूरज का उगना चाँद का रूप बदलना। लेकिन ये भी सच है कि समानांतर चलते हुए भी अब हमारी राहें शायद ही कभी एक हो पाएं। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’