ल ड़ती हूँ एक मुकदमा हर रोज़ मैं कभी तुम्हें कटघरे में रखती हूँ तो कभी तुम्हारी तरफ़ से जिरह भी मैं करती हूँ तब सवाल भी मेरे होते हैं और जवाब भी मैं ही देती हूँ जिरह के इस खेल में... रात सुबह में तब्दील हो जाती है और, सुबह रात में.... पर, ना ही कभी तुम जीत पाते हो और ना मैं . यूँ लगता है जैसे मस्तिष्क कि जटिल बनावट में 'तुम' अटक से गए हो कही. © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’