रोज़मर्रा की भागदौड़ से कुछ पल सुकून के चुराने की चाहत में निकल पड़े हम लैंसडॉउन की ओर । भीड़ भाड़ और सड़क जाम से पार पाते हुए रात नौ बजे कोटद्वार पहुंचे। वहाँ से लैंसडॉउन कि चढ़ाई शुरू होती है। घुमावदार पहाड़ी रास्ते से गुजरते हुए जाने कितनी कल्पनाएं सजीव हुई जा रही थी। लम्बे और घने चीड़, देवदार और बांज के पेड़ों से ढंकी घाटी .... दूर तक चांदनी छिटकी हुई .... ऐसा लगता था जैसे किसी सपनों की दुनिया से गुज़र रहे हो। हमारी गाड़ी अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रही थी। दूर तक घुप्प अन्धेरा फैला था …फिर अचानक जाने कहाँ से चाँद आ गया और पेड़-पौधे - रास्ते सब चांदनी में नहा गए, चन्दा के साथ आँख मिचौली खेलते हुए, नैसर्गिक सुंदरता का आनंद लेते हुए, रात के सन्नाटे में पहाड़ों की भाषा सुनने और समझने कि कोशिश करते हुए आखिरकार रात करीब ग्यारह बजे हम लैंसडॉउन पहुच गए। रात के ग्यारह बजे पहाड़ के लिहाज से थोड़ी देर हो जाती है.। हर तरफ सन्नाटा था.। दूर दूर तक कोई भी नहीं दिख रहा था .... यूँ लग रहा था जैसे लोगों के साथ ही प्रकृति भी सो रही हो। एक रेस्ट हाउस में कॉटेज का इंतज़ाम हुआ और सफ़र कि थकान से चूर हमसब विश्राम
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’