हर्फ़-हर्फ़ पढ़ती हूँ... बार-बार, कई बार कितने ही भावों से गुज़रती हूँ हर एहसासों से जोड़ लेती हूँ खुद को कभी-कभी शब्दों से टकरा जाती हूँ तो कभी उन्हें समाहित कर लेती हूँ स्वयं में तब बोझिल मन नई ऊर्जा से भर उठता है ये शब्दों का जादू है जो डूबती शाम को नई सुबह का न्यौता दे जाता है! सच-सच बताना ! शब्दों से अंतर्मन की यात्रा के पीछे कितने जन्मों की तपस्या छिपी है? कितना यथार्थ भोगा है तुमने? कितने गर्म झरनों को महसूस किया ? शब्दों को गढ़ने से पहले उसकी ऊष्मा से कितनी बार गुज़रे ? सच-सच बताना... क्योंकि मैं जानती हूँ मन के छिलन की कल्पना ज़रा मुश्किल है जादूगर ! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’