Skip to main content

पुल और ज़िन्दगी


















मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलते हुए
पैदल पार पुल से गुज़रते हुए
अनेक ज़िंदगियाँ दिख जाती हैं-
पुल के शुरुआत में ही मायूसी ओढ़े एक औरत बैठती है
आँचल में उसके पड़े होते हैं कुछ सिक्के
उसके पास ही कंचे खेल रहा होता है उसका तोतला बच्चा
जब भी कोई पास से गुज़रता है,
बच्चे के चेहरे पर दर्द उभरता है
कंचा छोड़, हाथ पसारे भागता है उसके पीछे
दूसरे हिस्से में बैठता है -
गंदे कपड़ों में,गन्दी सी चादर बिछाए
बैसाखी वाला वो युवक,
जो करता है संवेदनाओं का सौदा
हर गुजरने वाले को अपनी बैसाखी दिखाता है
करुणा के बदले में माँगता है चन्द सिक्के या गुलाबी नोट!
पुल के बीच में अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ बैठती है और एक औरत
गहरी नींद में सोया बच्चा सिक्का बन जाता है !
पुल और सीढ़ियों के बीच खिलौने और फलों की छोटी छोटी रेहड़ियां भी हैं।
कितने सपने हर रोज़ यहां जन्म लेते हैं,
कितनी मंज़िलों के रास्ते इसी पुल से गुज़रते हैं,
जानें कितनी दोस्ती हर रोज़ यहां बनती और बिगड़ती है
कितने प्रेम खामोशी से आगे बढ़ते हैं इसी पुल पर।
एक बूढ़ा भी इसी पुल पर रहता था,
दिन-प्रतिदिन क्षीण हो रही थी उसकी सांसें
सिक्कों से भरे स्टील के मग को लोहे की जंजीर से अपने कमर में बाँधे रहता
आँखें बंद किये पड़ा रहता था यहीं एक किनारे -
कुछ दिनों से उसका स्थान रिक्त है!
हर रोज़ ये जाने कितने लोगों से मिलता है- बिछड़ता है,
ये पुल ही है जो खामोश रहकर सबकी सुनता है, सबको पनाह देता है।
कितनी ज़िंदगियाँ जुडी है न इस पुल से-
सच है अनेक ज़िंदगियों का पेट पालता है ये पैदल पार पुल।


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Comments

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब...

ये हौसला…

उ स दिन गार्गी उदास सी घर के कामों में उलझी थी।  उसकी उदासी को समझ पाना बहुत ही आसान था, क्योंकि जब वो खुश - प्रफुल्लित रहती है, या तो कोई प्यारा सा बांग्ला गीत गुनगुनाती रहेगी या फिर यहां की बातें - वहाँ की बातें बांग्ला मिक्स टूटी फूटी हिन्दी में बताती रहेगी, जिसमें अक्सर लिंग भेद की त्रुटियाँ भी होती थीं, हालांकि करीब  चार - पांच  सालों के हमारे साथ ने उसकी हिंदी में काफी सुधार ला दिया था। अपने नाम के बिलकुल उलट - निरक्षर, अव्वल दर्जे की नासमझ, जिसे कोई भी चकमा दे जाता, रोज़ बेवक़ूफ़ बनती। मज़ाक  करते हुए मै अक्सर उससे पूछा करती कि आखिर तुम्हारा नाम गार्गी किसने रख दिया, पता है गार्गी कितनी पढ़ी लिखी विदुषी महिला का नाम था, वो मेरी बातें सुनती और हंसती…हाँ लेकिन वो बंगाली खूबसूरती से भरी पूरी थी, दुबली पतली सी…बड़ी बड़ी आँखों वाली । अक्सर अपनी बातें मुझसे साझा करती थी -  चाहे तकलीफ - परेशानियां हो या फिर कोई खुशी की बात, यहां तक कि अगर किसी ने उसके मेहनताने की रकम भी बढ़ाई तो भी बेहद खुश होकर बताएगी। कभी किसी की बुराई करते करते नाराज़ हो जाएगी तो ...

चिड़ियाँ

शाम हो चली थी।  सारे बच्चे छत पर उधम मचा रहे थे।  उनकी धमा चौकड़ी की आवाज़ से बिट्टी का  पढ़ाई से ध्यान बार बार उचट रहा था, लेकिन फिर पापा की घूरती आँखें, उसके ध्यान को वापिस ७ के पहाड़ा पर टिका दे रही थी । अब वो ज़ोर ज़ोर से पहाड़ा याद कर रही थी "सात एकम सात, सात दूनी चाॉदह"  तभी आवाज़ आई "हमार चिरैयाँ बोलेला बउवा के मनवा डोलेला" बिट्टी अपने पिता की ओर देखी, उनका ध्यान कहीं और था।  वह तुरंत खिड़की पर पहुँच कर नीचे झाँकने लगी। मोम से बनी रंग बिरंगी छोटी छोटी चिड़ियाँ ।  उसकी इच्छा हुई की बस अभी सब में प्राण आ जाए और सब सचमुच की चिड़ियाँ बन जाए ।  वो मोम की चिड़ियों की सुंदरता में डूबी हुई थी ।  तभी नीचे से चिड़िया वाले ने पूछा - "का बबी चिरैयाँ चाहीं का, आठ आना में एगो। " बिट्टी ने ना में सर हिलाया ।  फेरी वाले ने पुचकारते हुए कहा " जाए द आठ आना में तू दुगो ले लिहा।" बिट्टी फिर ना में सर हिला कर वापिस पिता के पास ...