यादों के तंग गलियारों से गुज़रते हुए अक्सर रूह छिल जाती हैं। लहूलुहान होने के बाद भी उन गलियारों से गुजरने के मोह से खुद को रोक नहीं पाती। पुरानी डायरियों को पढ़ने का मोह छोड़ नहीं पाती। दिमाग चाहता है पढ़ना बंद करूँ , और मन उसे बार बार पढ़ना चाहता है। दोस्त कहते हैं आत्ममुग्धा ना बनूँ, दूसरों की चीज़ें पढूं जो मेरी सोच को विस्तार दे सके। क्या बताऊँ उन्हें कि ये, उपन्यासों से बेहतर लगती है, जिसकी मुख्य किरदार मैं ही तो हूँ। मेरे आस पास की घटनाएं जो कभी रुलाती है कभी गुदगुदाती हैं, पुरानी यादों को ताज़ा कर जाती हैं। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’