सुबह १० बजे ऑफिस के लिए निकली... देर हो चुकी थी....सामने भीड़ से भरी हुई लो फ्लोर बस दिखी । दिल्ली में तीन साल बिताने के बाद अब मुझे आदत हो चुकी है भीड़ वाली बसों में चढ़ने की .... आगे खड़े होने के बाद भी किसी भी अजनबी या यूँ कहें सहयात्रियों से कह कर पैसे पास करने की और फ़िर कही भी खड़े या बैठ कर भी टीकट लेने की ... जी हाँ हर परिस्थितियों में सफर करने की आदत हो चुकी है। आसानी से... बगैर किसी जान पहचान के अपना बोझा दूसरे के गोद में डाल देना यहाँ के लोगों की खासियत है। लेकिन आज जो कुछ भी हुआ उसने हर अजनबियों पर विश्वास ना करने की सीख ज़रूर दे दी। बस में काफ़ी भीड़ थी... मैं आगे महिलाओं वाली सीट के पास जाकर खड़ी हो गई। पर्स से पैसे निकाल कर टिकट के लिए आगे एक सज्जन को पास कर दी ... उन्होंने भीड़ में ही आगे एक दूसरे बन्दे को, जो कंडक्टर के करीब खड़ा था, पैसे पास कर दिया । पाँच मिनट गुज़र गए ... दस मिनट ...दो स्टाप भी आया और चला गया । मैंने उन सज्जन से पूछा- क्या हुआ? उन्हें ख़ुद नही पता था ... फ़िर उन्होंने इधर - उधर देखा और पता चला की जिसे उन्होंने पैसे दिए थे वो बन्दा ही गायब है यानी कि
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’