उन दिनों भी सकरात के बाद ऐसी ही धूप हुआ करती। हम बच्चे छत पर धमा चौकड़ी करते। मम्मी और पड़ोस की चाचियाँ छत पर बैठ कर या तो आचार के लिए निम्बू घिसती या फिर साग तोड़ती। निम्बू घिसने के चलते आस पास का हिस्सा पीला पड़ जाता था।हमें भी कहा जाता पर हम बचपन से ही कामचोर ठहरे, जान बचाकर भाग लेते थे।
पापा को चने का साग बहुत पसंद था और पालक बिलकुल भी नहीं खाते थे, मम्मी की पसंद पापा की पसंद के बिलकुल उलट थी...सच कहूँ तो सिर्फ खाने के मामले में ही नहीं बल्कि हर मामले में दोनों की पसंद अलग थी। लेकिन मम्मी पापा की पसंद का ख्याल रखती और पापा मम्मी की पसंद का।
चने के साग की सफाई और बनाना बहुत समय लगाने वाला काम था। मीठी धूप में मम्मी और चाचियों की बातें चलती रहती, हम सब ऊधम मचाते रहते। अचानक किसी की इच्छा हो जाती कच्चा ही चने के साग को खाने की। भरवां मिर्च का आचार ,आम का आचार, नमक और निम्बू के साथ चने के साग की सफाई और खवाई शुरू हो जाती। उसमें हमारा भी योगदान होता। वो दौर था डेक और लाउड स्पीकर वाला। दिनभर क़यामत से क़यामत तक, आशिकी और मैंने प्यार किया, फूल और काँटे के गाने बजते रहते।सिंघाड़ा का आचार और आलू, बैगन, सेम के आचार को तो नाश्ते की तरह खा जाते। उस समय हर चीज़ में एक स्वाद था...रस था।
पापा नहीं रहे ना ही मम्मी रही। दिल्ली के फ्लैट की बालकनी में धूप तो आती है, पर चने का साग नहीं मिलता। ज़िन्दगी में ना तो वो स्वाद रहा...ना ही रस।
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