Skip to main content

Posts

Showing posts from November 30, 2014

अनाम रिश्ता

ख़ि ज़ाँ का मौसम था पर खुशनुमा सा था -  सर्द दिन थे और बंद लिफ़ाफ़े से तुम। गुज़रते वक्त में खुली किताब हो गए जिसके हर पन्ने से वाकिफ थी मैं।    जाने -अनजाने एक रिश्ते का आशियाँ सजा लिया था हमने।   साझा किया था शामो - सुबह गोया एक रूह के दो जिस्म हो। मेरे रहबर समय कब एक सा होता है - बेरंग हुए गुलाबी लम्हे बाँझ हुआ मोहब्बत का दरख़्त दफना दिया हर ख्वाब को। अरमानों के थपेड़ों में बमुश्किल सम्हाले रखा खुद को। सोचती हूँ - साल  की आखिरी रात अनाम-अबूझ-अव्यक्त रिश्ते के आशियाँ को छोड़ जाऊं ।    © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!