ख़ि ज़ाँ का मौसम था पर खुशनुमा सा था - सर्द दिन थे और बंद लिफ़ाफ़े से तुम। गुज़रते वक्त में खुली किताब हो गए जिसके हर पन्ने से वाकिफ थी मैं। जाने -अनजाने एक रिश्ते का आशियाँ सजा लिया था हमने। साझा किया था शामो - सुबह गोया एक रूह के दो जिस्म हो। मेरे रहबर समय कब एक सा होता है - बेरंग हुए गुलाबी लम्हे बाँझ हुआ मोहब्बत का दरख़्त दफना दिया हर ख्वाब को। अरमानों के थपेड़ों में बमुश्किल सम्हाले रखा खुद को। सोचती हूँ - साल की आखिरी रात अनाम-अबूझ-अव्यक्त रिश्ते के आशियाँ को छोड़ जाऊं । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’