हर रिश्ते से परे एक रिश्ता हमारे दरम्यां- जिसे समझने की ज़रूरत ना तुम्हे पड़ी ना मुझे - साझे हर्फ़ साझा लफ्ज़ साझे ख्वाब साझे जज़्बात साझी हसरतें तेरी हर चीज़ साझी प्रेम भी साझा- बस, मंज़ूर नहीं तेरी बाहों के सरमाया का साझा होना, जिस पर सिर रख कर अनगिनत शामें गुज़ारी मैंने। जानें कितनी दफा आँसुओं से भी धुली थी वो, लेकिन ये भी तो सच है साझे रिश्ते में हक़ कहाँ! मेरे रहबर कुछ रिश्ते को नाम देना बहुत मुश्किल, लेकिन कितना जरुरी होता है कभी कभी ! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’