सु नो तुम - चंद टुच्चे लोगों की सोंच और टिप्पणियों से घबरा कर मैं अपने रहने के तरीके में कोई फेरबदल नहीं करने वाली। भले ही इन बातों से थोड़ी देर के लिए मैं आहत हो गयी थी। ये भी सच है कि कुछ रातें मैंने आँखों में काटी…कभी-कभी पलकें बरसी भी, लेकिन… इसका मतलब ये बिलकुल नहीं कि मैं डर जाउंगी। मैं आज़ाद हूँ और आज़ाद ही रहना चाहती हूँ। गुलामी - सोंच की , दूसरों के अनुसार जीने की - अब मुझे बर्दाश्त नहीं। जिसे जो कहना है कहता रहे। तु म ही सोचो… घर से दूर रहते हुए करीब दस साल हो गए, हो गए ना ? इन दस सालों में मैंने अपने तरीके से ज़िन्दगी को देखा - जीया , हर परेशानियों को अपने तरीके से सुलझाया। क्या मैंने कभी क़िसी परेशानी की शिकायत की…नहीं ना, फिर तुम्हें ये विश्वास क्यों नहीं होता कि मुझे कभी भी कोई तकलीफ नहीं पंहुचा सकता, कि मैं अकेले रह सकती हूँ और बिना बेवक़ूफ़ बने सही निर्णय ले सकती हूँ । मै जैसी भी हूँ …तुम्हारी वजह से ही तो हूँ …जो भी अच्छाई है, बुराई है, तुम्हारी ही तो दी हुई है, फिर तुम्हें मुझ पर क्यों अविश्वास हो जाता है? क्यों हर बार मुझे ही कटघरे में खड़ा कर देते
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’