उन दिनों पास्ता खाने का और बनाने का शौक चरम पर था। यूट्यूब पर देखती रहती पास्ता कितने तरीके से बनाया जा सकता है फिर बनाने की कोशिश करती। बिना ज़्यादा कैलोरी के कैसे क्रीमी पास्ता बनाया जाए या फिर पास्ता को कैसे ज़्यादा हेल्थी बनाया जाए इसी कोशिश में जुटी रहती, और अक्सर सफल भी होती। एक अकेले के लिए बनाना कोई मुश्किल काम भी नहीं था। आरा गई तो रविवार की सुबह तय हुआ कि मैं पास्ता बनाऊँगी। मम्मी भी खुश कि खाने में कुछ नया प्रयोग किया जा रहा। मेरी मम्मी स्वादिष्ट खाना बनाने में माहिर थी। कितनी भी बीमार हों ज़रा सी ठीक होते हीं रसोई में चुपचाप कुछ चटपटा बनाकर रख देती। उन्हें ख़ुशी होती थी जब उनके बच्चे स्वादिष्ट खाना बनाते थे। इसलिये मम्मी खुश थी। पास्ता बना, सुबह का नाश्ता सर्व हुआ। मम्मी एक चम्मच खाईं। मैंने विजयी मुस्कान के साथ पूछा- “कैसा बना है?” मम्मी बोली -“बहुत बढ़िया बेटा” फिर पूछा मैंने- “और ले आएं ?” तब वे बोली “हमरा खातिर दुगो पराठा बना द आ बैगन चाहे परवल के चोखा।” अब मेरा मुँह चोखा जैसा बन गया था। मैंने पूछा -”पसंद नहीं आया” वे बोलीं-”ना बेटा बहुत बढ़िया बना है, लेकिन हमको पराठा
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’