अब तक किस्से कहानियो में ही सुना करती थी की कैसे एक गाँव की अनपढ़ महिला संघर्ष कर लोगों के लिए एक मिसाल बन गई। लेकिन पहली बार अपनी आँखों से देख सकी उस महिला को जिसने आज से करीब अस्सी साल पहले भोजपुर जैसे इलाके में व्यापार में योगदान देकर एक नई शुरुआत की। मैं बात कर रही हूँ भोजपुर के पकडी गाँव की रहने वाली फूलवंती की। ये सच है की फूलवंती को जानने वाले बहुत कम लोग ही मिलेंगे क्योंकि वो दशरथ मांझी की तरह भाग्यशाली नहीं है जिनपर मीडिया की नज़र पड़ सके, लेकिन उसके संघर्ष की कहानी उस गाँव में जाइए तब आपको समझ में आएगी। आज से अस्सी साल पहले का बिहार, अभी की स्थिति देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है की कैसा रहा होगा। तब लड़कियों की शादियाँ बचपन में ही कर दी जाती थी। उसके बाद उनका काम गज भर के घूँघट के साथ घर को संभालना हुआ करता था। तब लड़कियों को पढाना सही नहीं समझा जाता था। सातवी पास को ज्यादा पढ़ी लिखी समझा जाता था। तब शादी के बाद औरतें घर की चोव्खत को नहीं लांघा करती थी। कहानी तब की है ... फूलवंती के पति का काम खेती करना था। पैसे की तंगी ने उन्हें क़र्ज़ लेने पर मजबूर कर दिया। फिर शुरू हुआ सिल
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’