तब आरा के रमना मैदान में रामलीला का आयोजन हुआ करता था। तब नवरात्रि की शुरुआत का अर्थ ठंड की मीठी आहट होती थी। तब हम सब अष्टमी और नवमी को मूर्ति देखने जाया करते थे। तब भी गाजे-बाजे के साथ देवी माँ पधारती थी पर, तब इससे परेशानी नहीं हुआ करती थी। तब जगह-जगह कानफोड़ू आवाज़ में फूहड़ रीमिक्स भजन नहीं बजा करता था, बल्कि शारदा सिन्हा की आवाज़ में देवी का भजन बजा करता था। ज्यों ही "जगदम्बा घर में दीयरा बार अइनी हो" गली-मोहल्ले में बजना शुरू होता, मन उत्साहित हो उठता। महसूस होने लगता कि अब त्योहारों का मौसम आ गया। शहर में जगह-जगह चौकियां बिछाकर -बांस बांधकर मंच बनाने का कार्य शुरू हो जाता। मंच के सामने कलश स्थापना होती। स्कूल जाने और घर आने के क्रम में हर रोज़ उत्सुकता होती आज क्या नया हुआ... और फिर छठे दिन गाजे-बाजे के साथ माता पधारती। अगर चेहरे की हल्की झलक भी मिल गई, तो आपस में डींग हांकने का बहाना मिल जाता। सप्तमी को जब दुर्गा जी का पट खुलता तो जैसे होड़ मच जाती उन्हें देखने की। शाम होते ही हर गली, चौराहे, नुक्कड़ पर सजी-संवरी लड़कियां, औरतें, और उन्हें रास्ता दिखाते
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’