हिंदी अकादमी की पत्रिका 'इन्द्रप्रस्थ भारती' में एक और कहानी प्रकाशित.... निशा निशांत जी का बहुत आभार जिन्होंने यह मौक़ा दिया --- एक कबूतर जिसने अभी-अभी उड़ना सीखा था, ज़मीन पर गिर पड़ा था। सुबह की बारिश में उसके छोटे-छोटे पंख भीग कर आपस में चिपक गए थे। बारिश के बाद छिटकी, थोड़ी तीखी-थोड़ी मीठी धूप के आकर्षण में बंधा ठुमकता हुआ वह धूप की तरफ चला जा रहा था। तभी एक कुत्ते की नज़र उस पर पड़ी। भूख से बिलबिलाता कुत्ता उस पर तेज़ी से झपटा। नन्हा कबूतर खुद का बचाव करता हुआ कभी पत्थर, कभी ईंट के पीछे दुबकने लगा.... किन्तु कुत्ते के पंजे से बचना आसान नहीं था। कुत्ते ने अपने तीखे पंजों से उसके पंख घायल कर दिए। पंख से खून रिस रहा था। नन्हें पैरों में चोट लग गयी थी। फिर भी उस कबूतर का संघर्ष जारी था। वह खुद को घसीटते हुए भागने की कोशिश कर रहा था और कुत्ता उसे दबोचने को तैयार था। कबूतर खुद को घसीटते हुए सूखी हुई नाली के अंदर दुबक गया। कुत्ते का मुंह उस नाली के मुहाने से बड़ा था। वह घात लगाकर वहीं खड़ा हो गया और भौंकने लगा। मैं उस नन्हे कबूतर के संघर्ष को काफी देर से चुपचाप देख रहा था। आख
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’