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Showing posts from 2011

नो पर्सोनल क्वेश्चन प्लीज़

प्रवासी भारतीय सम्मलेन के दौरान मेरी मुलाक़ात अमेरिका में वकालत कर रही एक महिला से हुई. हालांकि वे रहनेवाली भारत की ही थी लेकिन दस साल पहले वे अमेरिका में बस गयी . उनसे हमनें बहुत सी बातें की कुछ उनके कार्यों के बारे में कुछ भारत और अमेरिका की कार्यप्रणाली में अंतर को लेकर... ऐसी ही ढेरों बातें हुई. उन्होंने भी बड़ी ही जिंदादिली से सभी प्रश्नों का जवाब दिया. हालाँकि यहाँ की अव्यवस्था से वो थोड़ी क्षुब्ध ज़रूर नज़र आई.... लेकिन हमारी बातें चलती रही. तभी एक और सज्जन आये और हमारी बातचीत में शामिल हो गए . वे भी भारत भ्रमण पर ही थे ... नमस्ते के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ . बातें होती रही तभी महाशय ने महिला वकील से पूछा की आपकी शादी हो चुकी है उन्होंने कहा हां... फिर महाशय ने पूछा की पतिदेव क्या करते हैं... महिला का जवाब था " क्या मैंने आपसे आपकी पत्नी के बारे में पूछा ... नहीं ना , फिर आपको क्यों इतनी जिज्ञासा है मेरे पति को लेकर और मैं क्यों बताऊँ की मेरे पति क्या करते हैं." ये सारी बातें उन्होंने चेहरे पर मुस्कराहट के साथ कही.... वो साहब का चेहरा देखने लायक था. बस दो मिनट

बूंदों की स्वरलहरी

बारिश की बूंदों में सबकुछ धुल गया... सारी चिंताएं... सारी फिक्र. कभी कभी मन करता है की बस भीगती रहूँ... बिना कुछ सोचे, बिना किसी की परवाह किये. बिलकुल उन्मुक्त ... जैसे आज सुबह बारिश में बच्चे भीग रहे थे.... बस वैसे ही... कुछ नहीं सिर्फ मैं और बारिश की बूँदें . अक्सर बरसातों में मैं चुपचाप बूंदों को निहारती रहती हूँ...बूंदों की स्वरलहरी, बीच बीच में बादलों की गर्जन मानो कोई संगीत पैदा कर रहे हो... या फिर बूँदें किसी जिद्दी बच्चे की तरह स्कूल बंक कर भाग रही हो और बादल हेडमास्टर की तरह गुस्से से गरज रहा हो ....और... और बिजली रानी टीचर की तरह आँखें दिखा कर बच्चों को डरा रही हो रही. इन बूंदों को देखते हुए न जाने ऐसी कितनी कल्पनाएँ मेरे दिलोदिमाग को रोमांचित और आह्लादित कर देती हैं. जाने क्यों भीगना मुझे बचपन से ही बेहद पसंद है.... हाँ अगर हाथों में चाय की प्याली हो तो फिर बारिश और भी अच्छी लगती है. आज बहुत दिनों बाद मुझे दिल्ली भली लगी . बिलकुल धुली धुली सी दिल्ली... और मैंने आरा को बिलकुल याद नहीं किया. © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी कि उलझनों को सुलझानें कि कोशिश में जुटी हूँ, और ये उलझनें ऐसी हैं जितनी भी सुलझानें कि कोशिश करती हूँ उलझती चली जाती हैं । ज़िन्दगी बदलती जा रही है .... हमारे परिवार का सबसे मजबूत स्तम्भ धीरे धीरे कमज़ोर पड़ रहे हैं... मैं देख रही हूँ और सिर्फ देख सकती हूँ। कुछ नहीं कर सकती.... बचपन से मेरे आदर्श रहे हैं.... उन्हें हमेशा मज़बूत ही देखा है मैंने । लोग कहते हैं कि मैं उनके जैसी ही दिखती हूँ । आज काफी कमज़ोर दिखे। मैंने कभी सोचा नहीं था कि वे भी कमज़ोर हो सकते हैं। आँखें थोड़ी थकी थकी सी लगी... कुछ घर - शहर से दूर होने का अहसास तो कुछ बिमारी का असर... काफी कमज़ोर लगे । क्यों परेशानियां बढती चली जाती हैं...??? कुछ लिखना चाहती हूँ पर कभी-कभी शब्द साथ नहीं देते । कभी तो इश्वर पर सहज ही विश्वास हो जाता है और कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कि वो शायद नहीं है । © २००८-०९ सर्वाधिकार सुरक्षित!

ये बारिश की बूंदें ....

बारिश की बूंदें अच्छी लगती हैं . पता नहीं क्यों... बचपन से ही मुझे बारिश में भीगना बेहद पसंद है. ऐसा लगता है जैसे सारी खुशियाँ मिल गयी , एक संतोष.... सुकून सा महसूस होता है. बचपन की बात है मैं और मेरा छोटा भाई अपने कमरे में बालकोनी के नजदीक सोये हुए थे... उस रात खूब बारिश हुई थी ओले भी पड़े थे . हमारी मच्छरदानी पर ढेर सारे ओले आकर गिर रहे थे और हम आधी रात को जाग कर उन ओलों को चुनकर खा रहे थे. सुबह उठे और छत पर गए . सबकुछ धुला धुला लग रहा था . वहीं छत के एक कोने में ढेर लगा था.... ओले सिर्फ ओले . हम ने उन्हें बोतलों में डालना शुरू किया... और वे पिघलने लगे . हमें उनका पिघलना पसंद नहीं आ रहा था , पर वे पिघल रहे थे. ऐसी पता नहीं कितनी यादें हैं . बरसात से जुडी.... जिन्हें मैं अक्सर याद करती हूँ. कभी कभी दिल्ली में वैसी बरसात को बेहद 'मिस' करती हूँ. यहाँ तो काले बादल आते हैं चले जाते है. कभी बारिश हुई तो वो भी दो मिनट के लिए . आरा में तो जब बारिश होती थी तभी मैं बाहर घुमने का प्लान बनाती थी. क्योंकि बरसात में धुलने के बाद प्रकृति खुबसूरत लगने लगती है. © 2008-09 सर्व

भूलने का मौसम

आज कल हिंदी धारावाहिकों में भूलने का मौसम है. जिसे देखो अपनी याददाश्त ही खो बैठा है. चाहे स्टार चैनल पर आने वाला धारावाहिक "ससुराल गेंदा फुल" का इशांत हो , कलर्स के धारावाहिक "लागी तुझसे लगन" की नकुशा हो, स्टार वन का धारावाहिक " प्यार की ये एक कहानी" की पिया हो या फिर जी पर आने वाला धारावाहिक "संजोग से बनी संगिनी" का रूद्र हो. सब के सब याददाश्त खो चुके हैं. हाँ रूद्र की याददाश्त तो वापिस आ चुकी है लेकिन ईशांत, नकुशा , पिया ये सब अपनी पिछली बातों को याद करने के लिए संघर्षरत हैं. इन किरदारों को देखकर लगता है की याददाश्त जाना और आना कितना आसान है. बस सिरिअल्स बनते रहे और हमारा मनोरंजन होता रहे. © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

भ्रष्टाचार के खिलाफ एक और अभियान

४ जून से एक और अभियान भ्रष्टाचार के खिलाफ. इस बार बाबा रामदेव ने कमर कसी है. हालाँकि उनके अनुयायियों की कमी नहीं है लेकिन एक बात जो आशंकित करती है वो ये की क्या इन आंदोलनों का कुछ असर होगा . हालाँकि इस आन्दोलन को लेकर केंद्र सरकार की घबराहट दिख रही है लेकिन एक बात हमेशा परेशां करती है की आम आदमी का क्या होगा ? कभी कभी ये सवाल भी मन में उठता है की आखिर जब इतने सारे और ऐसे लोग इस अभियान को समर्थन दे रहे हैं फिर भी भ्रष्टाचार आखिर जिंदा कैसे है ? कोई भी सरकारी काम हो बिना पैसे दिए काम नहीं हो सकता . यहाँ तक की पिछले दिनों जब मैं घर गयी थी ... दुगुना भाडा देकर एक दलाल से ट्रेन की टिकेट खरीदी . यानी कही ना कही मैंने भी भ्रष्टाचार में योगदान दिया और इसका मुझे बेहद अफ़सोस है. ऐसे ही बहुत से लोग छोटी छोटी जगहों पर किसी न किसी तरीके से भ्रष्टाचार को सपोर्ट करते हैं तभी तो वो इस कदर जकड़ा हुआ है जिसे निकाल पानें में शायद वर्षों लगेंगे. © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

चाय कि चुस्की ऑर ढेर सारे सवाल

दिल्ली के घर में सुबह चाय कि पहली चुस्की पर कोई मेरे साथ होता है तो वो है मेरी काम वाली " मीनू" । चाय पीते पीते बहुत सी बातें हो जाती हैं । कुछ उसकी कुछ मेरी... कभी कभी उसकी समस्याओं को सुलझाने कि कोशिश भी करती हूँ कभी सिर्फ सुन कर रह जाती हूँ। मीनू अकेले रहती है.... अशिक्षित बंगाली महिला... जो ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाती है... तीन बेटियां है उसकी , उनके साथ वो एक रूम के घर में रहती है। हालाँकि उसकी बातों से कभी बेचारगी नहीं झलकी ... पर एक सच जो उसे अक्सर बीमार बना देता है वो है उसका पति .... वो किसी दूसरी औरत के साथ यही दिल्ली में ही दूसरी जगह रहता है। मैंने मीनू से पूछा कि क्यों नहीं वो उसके साथ रहती है .... मीनू का कहना था कि जब भी वो आया मुझे माँ बनाकर किसी और के साथ भाग गया। अब तीन बेटियां मेरे लिए बहुत है , इन्हें पालना ही मुश्किल होता है दीदी । बड़ी बेटी तेरह साल कि हो चुकी है । हमारे गाँव के ही लोग है वो उसके लिए रिश्ता लेकर आये थे। मैंने बात काटते हुए कहा तेरह साल में शादी आपका दिमाग ख़राब हो गया है। जो आप झेली है वो उसको क्यों झेलवाना चाहती हैं। अभी उसे पढ़ाईये ।

मैं आजाद हूँ नहीं

मैं आजाद हूँ नहीं पर दिखती हूँ । मैं भी उड़ना चाहती हूँ, असीम - अनंत आकाश में । आजाद होना चाहती हूँ, भावनाओं के बंधन से, कर्तव्यों से, जिम्मेदारियों से, अपने आप से । पर सच है कि मैं आजाद हूँ नहीं दिखती हूँ ।

प्रेम पर्व और प्रिये तुम

प्रेम पर्व के परम मौके पर दो साल पहले लिखे इस लेख को मैंने दोबारा अपने ब्लॉग पर डाला है। अगर इससे किसी किसी की भावनाएं आहत होती है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ... सभी प्यार करने वालों को समर्पित है ये लेख .... प्रेम .... प्यार ... इश्क.... मोहब्बत... कितने अच्छे शब्द हैं । किसी ज़माने में प्रेम में पड़े लोगों के लिए इनका गहरा मतलब हुआ करता था। एक प्यार से भरा दिल अपनी चाहत का इज़हार अक्सर पत्रों के माध्यम से किया करता था। फ़िर वो पत्र या तो 'मुग़ल ऐ आज़म ' फ़िल्म की तरह कमल के फूल की पंखुरियों में छिपा कर बहते जल के माध्यम से प्रियतमा तक पहुँचाया जाता था, या फ़िर किताबों में रख कर या फ़िर 'मैंने प्यार किया' फ़िल्म की तरह कबूतर बनता था संदेशवाहक। कितना रोमांटिक हुआ करता होगा तब प्रेम पत्र, जिसे पढ़ते ही नायिका चाहे ना चाहे इजहारे मोहब्बत को तुंरत स्वीकार कर लेती थी। आज दुनिया हाईटेक हो गई है, नायक नायिका बिंदास हो गए हैं। आज मिले...कल प्यार हुआ.... परसों शादी... और फ़िर तलाक, मामला ख़त्म और फ़िर नई कहानी शुरू । हाथ में मोबाइल है ...घर में कंप्यूटर। जब मन किया एस एम् एस क