दिल्ली के घर में सुबह चाय कि पहली चुस्की पर कोई मेरे साथ होता है तो वो है मेरी काम वाली " मीनू" । चाय पीते पीते बहुत सी बातें हो जाती हैं । कुछ उसकी कुछ मेरी... कभी कभी उसकी समस्याओं को सुलझाने कि कोशिश भी करती हूँ कभी सिर्फ सुन कर रह जाती हूँ। मीनू अकेले रहती है.... अशिक्षित बंगाली महिला... जो ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाती है... तीन बेटियां है उसकी , उनके साथ वो एक रूम के घर में रहती है। हालाँकि उसकी बातों से कभी बेचारगी नहीं झलकी ... पर एक सच जो उसे अक्सर बीमार बना देता है वो है उसका पति .... वो किसी दूसरी औरत के साथ यही दिल्ली में ही दूसरी जगह रहता है। मैंने मीनू से पूछा कि क्यों नहीं वो उसके साथ रहती है .... मीनू का कहना था कि जब भी वो आया मुझे माँ बनाकर किसी और के साथ भाग गया। अब तीन बेटियां मेरे लिए बहुत है , इन्हें पालना ही मुश्किल होता है दीदी । बड़ी बेटी तेरह साल कि हो चुकी है । हमारे गाँव के ही लोग है वो उसके लिए रिश्ता लेकर आये थे। मैंने बात काटते हुए कहा तेरह साल में शादी आपका दिमाग ख़राब हो गया है। जो आप झेली है वो उसको क्यों झेलवाना चाहती हैं। अभी उसे पढ़ाईये । कौन जाने कल उसके साथ क्या हो। पढ़ी लिखी रहेगी तो कम से कम अपने पैर पर खड़ी तो हो सकेगी। पहली बार उसने इतनी मायूसी से कहा कि क्या करें दीदी भगवान हमारे साथ इतनी नाईंसाफी किया है। तीन तीन बेटिया दे दिया है। अकेले हम कमाने वाले। घर घर काम करके कितना कम लेते है। किसी से कुछ कह भी नहीं सकते। जानती है दीदी कभी कभी हम भूखे भी सो जाते हैं। अब ऐसे में बिना ज्यादा पैसा के बेटी कि शादी हो जाती है तो और क्या चाहिए। मैं उसे देखती रही मुझे ऐसा लगा कि मैं नेताओं कि तरह भाषण दे रही हूँ जिससे एक आम आदमी का कोई सरोकार ही नहीं होता। अफ़सोस हुआ... दुःख हुआ ... और मैं उस बच्ची के बारे में सोचने लगी जो चौथी कक्षा में है। दिमाग में कई सवाल घुमने लगे .... क्या इतनी बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ उठा पाएगी ? क्या यूँ ही परिस्थितियां बाल विवाह को जन्म देती रहेंगी...? © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब
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