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ज़िन्दगी

ज़िन्दगी कि उलझनों को सुलझानें कि कोशिश में जुटी हूँ, और ये उलझनें ऐसी हैं जितनी भी सुलझानें कि कोशिश करती हूँ उलझती चली जाती हैं । ज़िन्दगी बदलती जा रही है .... हमारे परिवार का सबसे मजबूत स्तम्भ धीरे धीरे कमज़ोर पड़ रहे हैं... मैं देख रही हूँ और सिर्फ देख सकती हूँ। कुछ नहीं कर सकती.... बचपन से मेरे आदर्श रहे हैं.... उन्हें हमेशा मज़बूत ही देखा है मैंने । लोग कहते हैं कि मैं उनके जैसी ही दिखती हूँ । आज काफी कमज़ोर दिखे। मैंने कभी सोचा नहीं था कि वे भी कमज़ोर हो सकते हैं। आँखें थोड़ी थकी थकी सी लगी... कुछ घर - शहर से दूर होने का अहसास तो कुछ बिमारी का असर... काफी कमज़ोर लगे । क्यों परेशानियां बढती चली जाती हैं...??? कुछ लिखना चाहती हूँ पर कभी-कभी शब्द साथ नहीं देते । कभी तो इश्वर पर सहज ही विश्वास हो जाता है और कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कि वो शायद नहीं है ।





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https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब...

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