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Showing posts from 2019

स्याह सच

अभी-अभी ‘द लल्लनटॉप डॉट कॉम’ पर एक खबर पढ़ी।  दुनिया की टॉप 100 पॉर्न वेबसाइट्स में शामिल एक साइट है। इस के टॉप ट्रेंड वाले सेक्शन में हैदराबाद की वेटनरी डॉक्टर (जिसे बलात्कार के बाद जला कर मार डाला गया) का नाम सबसे ऊपर है। अभी तक करीब 8 मिलियन से ज्यादा बार उसके नाम को इस वेबसाइट में सर्च किया जा चुका है। ये सोच कर भी हैरत होती है और दिल दहल जाता है कि ऐसे वीडियो देखने वाले लोग लाखों में हैं (लल्लनटॉप पर प्रकाशित होने तक 8 मिलियन लोग) … और ये वैसे ही लोग हैं जो इन्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें ऐसी वेबसाइट की जानकारी है। एक अन्य वेबसाइट ब्लॉग ‘टॉकवॉकर’ के आंकड़ों के अनुसार सवा अरब की आबादी वाले भारत की लगभग 70 फीसदी जनता सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती है। वहीं इन्टरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों में से करीब 97 फीसदी लोग ऐसे हैं जो ऑनलाइन विडियो  देखने के लिए इन्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं। मतलब जो लोग सोशल मीडिया पर ऐसी घटनाओं पर ‘लानत-मलामत’ करते हैं रोना पीटना मचाते हैं संभव है उनमें से कुछ लोगों ने कभी न कभी ऐसे वीडियो को देखा हो।  फेसबुक पर भी ऐसे अनेक ग्रुप सक्रिय हैं

कलाम मेमोरियल

आइएनए स्थित दिल्ली हाट समय व्यतीत करने की एक अच्छी जगह है। हाथ से बनी हुई सुन्दर कलाकृतियाँ हों, खादी, सूती या सिल्क के कपडे हों या फिर घरों को सजाने के लिए विभिन्न साज-सज्जा की वस्तुएं सब कुछ एक जगह, वहाँ उपलब्ध होता है। एक ही सामान की कई दुकानें हैं, बस मोल-तोल करते हुए आगे बढ़ते जाना है। खरीदारी करते हुए यदि भूख लग गयी तो वहाँ विभिन्न राज्यों के स्टाल्स लगे हैं जहां से उस राज्य के विशेष पकवान का मज़ा लिया जा सकता है। दिल्ली हाट के बारे में लगभग सभी जानते हैं, लेकिन क्या आपको यह पता है  कि वहाँ पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को समर्पित एक संग्रहालय भी है। संयोग से हम वहाँ पहुंच गए। हुआ यूँ कि दिल्ली हाट में घूमते और चीज़ों की मोल-मोलाई करते हुए हम दिल्ली हाट के आखिरी दूकान तक पहुंचे, जहां एक छोटा सा बोर्ड लगा था, ‘कलाम स्मारक’ में जाने का रास्ता। रास्ते को तीर से प्रदर्शित किया गया था।  हमने दुकानदार से पूछा “ये कलाम स्मारक क्या है भाई और जाने का रास्ता किधर है?” उसने “नहीं पता” कह कर अपना सिर ‘ना’ में हिला दिया। हम तीर की दिशा में बढ़ चले। दिल्ली हाट के दरवाज़े से बाहर न

यादों के खजाने से....

तब आरा के रमना मैदान में रामलीला का आयोजन हुआ करता था। तब नवरात्रि की शुरुआत का अर्थ ठंड की मीठी आहट होती थी। तब हम सब अष्टमी और नवमी को मूर्ति देखने जाया करते थे। तब भी गाजे-बाजे के साथ देवी माँ पधारती थी पर, तब इससे परेशानी नहीं हुआ करती थी। तब जगह-जगह कानफोड़ू आवाज़ में फूहड़ रीमिक्स भजन नहीं बजा करता था, बल्कि शारदा सिन्हा की आवाज़ में देवी का भजन बजा करता था। ज्यों ही "जगदम्बा घर में दीयरा बार अइनी हो" गली-मोहल्ले में बजना शुरू होता, मन उत्साहित हो उठता। महसूस होने लगता कि अब त्योहारों का मौसम आ गया। शहर में जगह-जगह चौकियां बिछाकर -बांस बांधकर मंच बनाने का कार्य शुरू हो जाता। मंच के सामने कलश स्थापना होती। स्कूल जाने और घर आने के क्रम में हर रोज़ उत्सुकता होती आज क्या नया हुआ... और फिर छठे दिन गाजे-बाजे के साथ माता पधारती। अगर चेहरे की हल्की झलक भी मिल गई, तो आपस में डींग हांकने का बहाना मिल जाता। सप्तमी को जब दुर्गा जी का पट खुलता तो जैसे होड़ मच जाती उन्हें देखने की। शाम होते ही हर गली, चौराहे, नुक्कड़ पर सजी-संवरी लड़कियां, औरतें, और उन्हें रास्ता दिखाते

एक और कहानी प्रकाशित....'बारिश के अक्षर '

हिंदी अकादमी की पत्रिका 'इन्द्रप्रस्थ भारती' में एक और कहानी प्रकाशित.... निशा निशांत जी का बहुत आभार जिन्होंने यह मौक़ा दिया --- एक कबूतर जिसने अभी-अभी उड़ना सीखा था, ज़मीन पर गिर पड़ा था। सुबह की बारिश में उसके छोटे-छोटे पंख भीग कर आपस में चिपक गए थे। बारिश के बाद छिटकी, थोड़ी तीखी-थोड़ी मीठी धूप के आकर्षण में बंधा ठुमकता हुआ वह धूप की तरफ चला जा रहा था।  तभी एक कुत्ते की नज़र उस पर पड़ी। भूख से बिलबिलाता कुत्ता उस पर तेज़ी से झपटा। नन्हा कबूतर खुद का बचाव करता हुआ कभी पत्थर, कभी ईंट के पीछे दुबकने लगा.... किन्तु कुत्ते के पंजे से बचना आसान नहीं था। कुत्ते ने अपने तीखे पंजों से उसके पंख घायल कर दिए। पंख से खून रिस रहा था। नन्हें पैरों में चोट लग गयी थी। फिर भी उस कबूतर का संघर्ष जारी था। वह खुद को घसीटते हुए भागने की कोशिश कर रहा था और कुत्ता उसे दबोचने को तैयार था। कबूतर खुद को घसीटते हुए सूखी हुई नाली के अंदर दुबक गया। कुत्ते का मुंह उस नाली के मुहाने से बड़ा था। वह घात लगाकर वहीं खड़ा हो गया और भौंकने लगा। मैं उस नन्हे कबूतर के संघर्ष को काफी देर से चुपचाप देख रहा था।  आख

अरे रुक जा रे बन्दे....!

"ये अंधी चोट तेरी कब की सूख जाती मगर अब पक चलेगी अरे रुक जा रे बन्दे अरे थम जा रे बन्दे ... " 2007 में आयी फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' के इस गाने के बोल आज मौज़ूँ जान पड़ते हैं। हम किस दिशा में जा रहे हैं ? शायद गलत को गलत कहने की अब हमारी आदत नहीं रह गयी है ! आज रुकना और रोकना दोनों ज़रूरी हो गया है। दो-तीन दिनों के अन्दर कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जो ऐसा सोचने पर मजबूर कर रही हैं। एक तरफ 'मॉब लिंचिंग' की बढ़ती घटनाएं जिस पर  सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस भी जारी की है। बहुत आसान है किसी भी झूठे आरोप को आधार बनाकर भीड़ के साथ किसी की जान ले लेना। पटना में इसी आधार पर एक बड़ी घटना हो सकती थी, अगर समय रहते पुलिस तक सूचना नहीं पहुँचती और पुलिस तुरंत हरकत में नहीं आती। मसला इतना था कि गाय को कुत्ते ने काट लिया था। मॉब लिंचिंग से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और 10 राज्यों से पूछा है कि उन्होंने इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए ? याचिका में यह आरोप लगाया गया था कि राज्य सरकारों ने ऐसी भीड़ हिंसा को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से ज

वसंतपुत्री का वसंत से पहले चले जाना...

ज बसे मैंने हिंदी साहित्य पढ़ना और समझना शुरू किया....तब से कुछ लेखिकाओं के लेखन की कायल रही जिनमें कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी का नाम सबसे ऊपर है। दिलचस्प ये कि दोनों ही लेखिकाओं से मिलने और साक्षात्कार करने का कभी सौभाग्य नहीं मिल सका। अपने कार्यक्रम के लिए दोनों से ही मेरी बातें हुई और दोनों ने ही हमेशा मना किया। 2015 से लेकर 2017 के बीच  कृष्णा सोबती जी से तो हर तीन चार महीने में  कॉल कर के उनकी तबियत पूछती और कैमरा टीम के साथ घर आने की अनुमति मांगती...अंततः मैं समझ गई वे इस इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं होंगी और मैंने उन्हें फोन करना बंद कर दिया। जब ज्ञानपीठ मिलने की खबर मिली तब ऐसा लगा कि शायद अब साक्षात्कार के लिए तैयार हो जाएं फिर पता चला कि तबियत खराब होने की वजह से उनकी जगह अशोक वाजपेयी जी ने उनका पुरस्कार ग्रहण किया।   वे मेरी प्रिय लेखिकाओं में से थीं और हमेशा रहेंगी। मैंने कम लेखिकाओं के लेखन में इतनी उन्मुक्तता देखी जो यहाँ पढने को मिली।  कई बार  उनकी कहानियों पर खासा विवाद भी हुआ क्योंकि  किसी लेखिका ने साहस के साथ स्त्री मन और उसकी ज़रूरतों पर  पहली बार  लिखा था।  एक वर

पहली जनवरी घर पर मनाया जाए तो बेहतर है

आज यानी इस साल के पहले महीने की पहली तारीख...दिन मंगलवार होने की वजह से कार्यालय में कोई छुट्टी नहीं थी। जाने क्या सूझा जो हमने कनॉट प्लेस और जनपथ घूमने का प्लान बना लिया।  इतनी भीड़... लोगों का रेला लगा था, जैसे कोई मेला हो। गाड़ियों की रफ़्तार भी अति धीमी थी। हर कोई परेशान था। कोई भीड़ को कोस रहा था तो कोई ट्रैफिक को। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि जब सभी को इस परेशानी का पता है  फिर भी उन्हें अपनी अपनी गाड़ी लेकर क्यों निकलना है ?  आज के दिन के लिए मेट्रो या बस का इस्तेमाल भी तो किया जा सकता था!  भीड़ में और भीड़ बढ़ाने की क्या ज़रूरत थी ? कनाट प्लेस के बहुचर्चित हनुमान मंदिर में जाने के लिए इतनी लम्बी कतार लगी थी कि उसके छोर को पकड़ना मुश्किल हो रहा था। इतनी भीड़... इतनी मारामारी के बाद किये जाने वाले पूजा का क्या हासिल ? क्या इतनी मारामारी  में  किसी भी ख़ुशी या उत्सव का मज़ा लिया जा सकता है ? मेट्रो स्टेशन पर उमड़ी भीड़ को काबू में करने के लिए सीआरपीएफ के जवान मुस्तैद थे पर लोगों को जो परेशानी हो रही थी  उससे नव वर्ष का मज़ा किरकिरा हीं हो रहा था? उस भीड़ में एक सज्जन का बेटा खो गया थ