"ये अंधी चोट तेरी
कब की सूख जाती
मगर अब पक चलेगी
अरे रुक जा रे बन्दे
अरे थम जा रे बन्दे ... "
2007 में आयी फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' के इस गाने के बोल आज मौज़ूँ जान पड़ते हैं। हम किस दिशा में जा रहे हैं ? शायद गलत को गलत कहने की अब हमारी आदत नहीं रह गयी है ! आज रुकना और रोकना दोनों ज़रूरी हो गया है। दो-तीन दिनों के अन्दर कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जो ऐसा सोचने पर मजबूर कर रही हैं। एक तरफ 'मॉब लिंचिंग' की बढ़ती घटनाएं जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस भी जारी की है। बहुत आसान है किसी भी झूठे आरोप को आधार बनाकर भीड़ के साथ किसी की जान ले लेना। पटना में इसी आधार पर एक बड़ी घटना हो सकती थी, अगर समय रहते पुलिस तक सूचना नहीं पहुँचती और पुलिस तुरंत हरकत में नहीं आती। मसला इतना था कि गाय को कुत्ते ने काट लिया था।
मॉब लिंचिंग से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और 10 राज्यों से पूछा है कि उन्होंने इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए ? याचिका में यह आरोप लगाया गया था कि राज्य सरकारों ने ऐसी भीड़ हिंसा को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जारी 10 सूत्रीय निर्देश का पालन नहीं किया है। भीड़ की ना तो कोई शक्ल होती है न ही अक्ल होती है, वह तो एक भेड़ चाल है, जिस दिशा में अगला चला पीछे-पीछे सभी चल पड़ेंगे। यह सोचने की फुर्सत किसे कि यह सही है या नहीं?
दूसरी ओर उन्नाव की वह घटना जो दिन पर दिन और वीभत्स रूप अख्तियार करती जा रही है। घटनाएं स्पष्ट हैं किन्तु फिर भी साक्ष्य की कमी निर्णय तक पहुंचन से रोकती है। इसे उस लड़की की बदकिस्मती ही कहा जा सकता है। सोलह साल की उम्र में बलात्कार, फिर पिटाई से पिता की मौत और अब उस गाड़ी का दुर्घटनाग्रस्त होना जिसमें वह अपने वकील और दो सम्बन्धियों के साथ जा रही थी। दोनों सम्बन्धियों और ड्राइवर की मौके पर ही मौत हो गयी और अब वह लड़की और उसका वकील ज़िंदगी के लिए संघर्षरत हैं।
ये सारी घटनाएं यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हम किस युग में जी रहे हैं? न्याय मिलने में इतनी देरी क्यों कि देखते-देखते सारे साक्ष्य/ गवाह ही मिटा दिए जाएं? क्या किसी के कानों तक इन घटनाओं की आवाज़ नहीं पहुँच पा रही? अगर ऐसा है तो समझ लो आज इनकी बारी तो कल आपकी बारी। ताकत का नशा बहुत बुरा होता है। यह भी सच है कि एक न एक दिन उतरता ज़रूर है, और जब उतरता है तो स्थिति 'राजद सुप्रीमो' (लिखते हुए दुःख हो रहा पर यही सच्चाई है) जैसी हो जाती है।
कब की सूख जाती
मगर अब पक चलेगी
अरे रुक जा रे बन्दे
अरे थम जा रे बन्दे ... "
2007 में आयी फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' के इस गाने के बोल आज मौज़ूँ जान पड़ते हैं। हम किस दिशा में जा रहे हैं ? शायद गलत को गलत कहने की अब हमारी आदत नहीं रह गयी है ! आज रुकना और रोकना दोनों ज़रूरी हो गया है। दो-तीन दिनों के अन्दर कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जो ऐसा सोचने पर मजबूर कर रही हैं। एक तरफ 'मॉब लिंचिंग' की बढ़ती घटनाएं जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस भी जारी की है। बहुत आसान है किसी भी झूठे आरोप को आधार बनाकर भीड़ के साथ किसी की जान ले लेना। पटना में इसी आधार पर एक बड़ी घटना हो सकती थी, अगर समय रहते पुलिस तक सूचना नहीं पहुँचती और पुलिस तुरंत हरकत में नहीं आती। मसला इतना था कि गाय को कुत्ते ने काट लिया था।
मॉब लिंचिंग से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और 10 राज्यों से पूछा है कि उन्होंने इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए ? याचिका में यह आरोप लगाया गया था कि राज्य सरकारों ने ऐसी भीड़ हिंसा को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जारी 10 सूत्रीय निर्देश का पालन नहीं किया है। भीड़ की ना तो कोई शक्ल होती है न ही अक्ल होती है, वह तो एक भेड़ चाल है, जिस दिशा में अगला चला पीछे-पीछे सभी चल पड़ेंगे। यह सोचने की फुर्सत किसे कि यह सही है या नहीं?
दूसरी ओर उन्नाव की वह घटना जो दिन पर दिन और वीभत्स रूप अख्तियार करती जा रही है। घटनाएं स्पष्ट हैं किन्तु फिर भी साक्ष्य की कमी निर्णय तक पहुंचन से रोकती है। इसे उस लड़की की बदकिस्मती ही कहा जा सकता है। सोलह साल की उम्र में बलात्कार, फिर पिटाई से पिता की मौत और अब उस गाड़ी का दुर्घटनाग्रस्त होना जिसमें वह अपने वकील और दो सम्बन्धियों के साथ जा रही थी। दोनों सम्बन्धियों और ड्राइवर की मौके पर ही मौत हो गयी और अब वह लड़की और उसका वकील ज़िंदगी के लिए संघर्षरत हैं।
ये सारी घटनाएं यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हम किस युग में जी रहे हैं? न्याय मिलने में इतनी देरी क्यों कि देखते-देखते सारे साक्ष्य/ गवाह ही मिटा दिए जाएं? क्या किसी के कानों तक इन घटनाओं की आवाज़ नहीं पहुँच पा रही? अगर ऐसा है तो समझ लो आज इनकी बारी तो कल आपकी बारी। ताकत का नशा बहुत बुरा होता है। यह भी सच है कि एक न एक दिन उतरता ज़रूर है, और जब उतरता है तो स्थिति 'राजद सुप्रीमो' (लिखते हुए दुःख हो रहा पर यही सच्चाई है) जैसी हो जाती है।
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
Comments