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यादों के खजाने से....









तब आरा के रमना मैदान में रामलीला का आयोजन हुआ करता था। तब नवरात्रि की शुरुआत का अर्थ ठंड की मीठी आहट होती थी। तब हम सब अष्टमी और नवमी को मूर्ति देखने जाया करते थे। तब भी गाजे-बाजे के साथ देवी माँ पधारती थी पर, तब इससे परेशानी नहीं हुआ करती थी। तब जगह-जगह कानफोड़ू आवाज़ में फूहड़ रीमिक्स भजन नहीं बजा करता था, बल्कि शारदा सिन्हा की आवाज़ में देवी का भजन बजा करता था। ज्यों ही "जगदम्बा घर में दीयरा बार अइनी हो" गली-मोहल्ले में बजना शुरू होता, मन उत्साहित हो उठता। महसूस होने लगता कि अब त्योहारों का मौसम आ गया। शहर में जगह-जगह चौकियां बिछाकर -बांस बांधकर मंच बनाने का कार्य शुरू हो जाता। मंच के सामने कलश स्थापना होती। स्कूल जाने और घर आने के क्रम में हर रोज़ उत्सुकता होती आज क्या नया हुआ... और फिर छठे दिन गाजे-बाजे के साथ माता पधारती। अगर चेहरे की हल्की झलक भी मिल गई, तो आपस में डींग हांकने का बहाना मिल जाता। सप्तमी को जब दुर्गा जी का पट खुलता तो जैसे होड़ मच जाती उन्हें देखने की। शाम होते ही हर गली, चौराहे, नुक्कड़ पर सजी-संवरी लड़कियां, औरतें, और उन्हें रास्ता दिखाते अभिभावक बने पुरुषों की भीड़ नज़र आती। बड़ी हो रही लड़कियों के आगे एक अभिभावक चलता और एक उसके पीछे चलता। जिसे अपनी आवाज़ के कर्णप्रिय होने का गुमान होता वह इको माइक थाम लेता और निर्देश देता रहता "आगे वाली बहनों -माताओं से अनुरोध है, आगे-आगे बढ़ते जाएं" सच कहूँ तो उसका भी एक अलग मज़ा था। किसी को देवी जी की साड़ी और साज सज्जा पसन्द आती, किसी को उनकी भाव भंगिमा, तो कोई यह देखने और इस पर चर्चा करने में व्यस्त रहता कि इस बार किस सवारी पर चढ़ कर पधारी हैं। दूसरी तरफ हम जैसे लोग शहर की रौनक देखते नहीं अघाते😊।
सारा शहर रोशनी के झालरों , झांकियों से सजा होता। जब डालडा में चर्बी मिलाए जाने की खबर सुर्खियों में थी उस दौरान इस पर आधारित झांकी भी लोकप्रिय हुई थी। तब ठेले पर बिकने वाले सड़े हुए चाट का मज़ा और स्वाद भी आज के हाई -फाई वाले रेस्तरां के चाट से ज़्यादा हुआ करता था। बचपन मे तो पापा हमें रामलीला भी दिखाया करते थे, तब भी भीड़ वैसे ही जुटा करती थी और हम सब बस आतिशबाजी देख कर संतुष्ट हो जाते कि रावण का वध हो गया।
थोड़ी बड़ी हुई तो रामलीला का आकर्षण जाता रहा, हाँ मूर्ति दर्शन तब भी प्रिय काम था। कौन सा पंडाल किस इमारत की अनुकृति है इसे देखना और समझना दिलचस्प हुआ करता था। इसके साथ-साथ चाट और गुड़हा जलेबी खाने का अपना मज़ा था। हम सब अक्सर रात में 11 बजे के बाद घूमने निकला करते थे। इस मामले में मम्मी आगे रहतीं। "आज के दिन तनी घुमल जाला, देवी जी के दर्शन करे के चाहीं" इतना वे कहतीं और हम चट से तैयार हो जाते। आरा छोड़े 15 साल हो गए...अब का आरा बहुत बदल गया है, पर मेरी याद में वही आरा आज भी जिंदा है।दिल्ली में भी वही रौनक ढूंढने की कोशिश में महाअष्टमी के दिन चितरंजन पार्क पहुंच गई...😊  वहाँ की भीड़, वहाँ की रौनक कुछ-कुछ अपने शहर की याद दिला रही थी  

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