आज यानी इस साल के पहले महीने की पहली तारीख...दिन मंगलवार होने की वजह से कार्यालय में कोई छुट्टी नहीं थी। जाने क्या सूझा जो हमने कनॉट प्लेस और जनपथ घूमने का प्लान बना लिया। इतनी भीड़... लोगों का रेला लगा था, जैसे कोई मेला हो। गाड़ियों की रफ़्तार भी अति धीमी थी। हर कोई परेशान था। कोई भीड़ को कोस रहा था तो कोई ट्रैफिक को। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि जब सभी को इस परेशानी का पता है फिर भी उन्हें अपनी अपनी गाड़ी लेकर क्यों निकलना है ? आज के दिन के लिए मेट्रो या बस का इस्तेमाल भी तो किया जा सकता था! भीड़ में और भीड़ बढ़ाने की क्या ज़रूरत थी ?
कनाट प्लेस के बहुचर्चित हनुमान मंदिर में जाने के लिए इतनी लम्बी कतार लगी थी कि उसके छोर को पकड़ना मुश्किल हो रहा था। इतनी भीड़... इतनी मारामारी के बाद किये जाने वाले पूजा का क्या हासिल ? क्या इतनी मारामारी में किसी भी ख़ुशी या उत्सव का मज़ा लिया जा सकता है ?
मेट्रो स्टेशन पर उमड़ी भीड़ को काबू में करने के लिए सीआरपीएफ के जवान मुस्तैद थे पर लोगों को जो परेशानी हो रही थी उससे नव वर्ष का मज़ा किरकिरा हीं हो रहा था? उस भीड़ में एक सज्जन का बेटा खो गया था। हालांकि मेट्रोकर्मी उसे ढूंढने के लिए तत्पर थे पर ऐसी परेशानी आने ही क्यों दें ?
राजीव चौक पर तिल रखने तक की जगह नहीं थी...ऐसी भीड़ की लग रहा था अगर कुछ अनहोनी हो गयी तो क्या होगा?
एक तरफ हमारा छोटा सा शहर है जहां नए साल में घर-घर में पिकनिक मन जाती है, घर पर हीं सेलिब्रेशन हो जाता है। सारे आयोजन के लिए छत ही काफी होता है (हालांकि अब वहाँ भी महानगर का नकल करने की होड़ मची है) दूसरी ओर हम सबका यह महानगर जहां कोई भी उत्सव हो तमाम परेशानियों को झेलते हुए भी हर तरफ भीड़ ही भीड़ नज़र आती है.... वैसे मैं भी इसी भीड़ का हिस्सा हूँ।
"नव वर्ष की शुभकामनाएं"
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