मैं इस पर कुछ लिखना नहीं चाहती थी पर ये तस्वीरें बार - बार लिखने के लिए दबाव बना रही थीं। सोशल मीडिया पर प्रेम में डूबे युगलों की तस्वीरें देख कर सच में ये तय कर पाना मुश्किल है कि इनमें कौन सी तस्वीर सच्ची है और कौन सी झूठी। एक तस्वीर और ट्वीट का हवाला देकर ही सुष्मिता सेन की शादी की खबर सुर्खियां बटोर ली। सोशल मीडिया के सच और वास्तविकता में कितना अंतर है इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो श्रद्धा और आफताब की ये तस्वीर ही हैं। सोशल मीडिया पर प्रेम की तस्वीरें, रील और वास्तविक जीवन में हत्या, शव को 35 टुकड़ों में बांटने जैसा वीभत्स कार्य, उसे फेंकने का दुस्साहस... अविश्वसनीय...पर सच।
आफताब ने अपनी लिव-इन पार्टनर श्रद्धा की हत्या कर दी। उस के शव के 35 टुकड़े किए और दिल्ली में कई दिनों तक फेंकता रहा। दिल्ली पुलिस ने छह महीने बाद उसे गिरफ्तार कर लिया। ये कम बड़ी बात नहीं कि छह महीने बाद कम से कम गिरफ्तार तो कर लिया। बड़ी बात तो यह भी है कि आफताब ने जुर्म कबूल भी लिया वर्ना जिंदगी खत्म होने तक मां - बाप लापता बेटी को ढूंढते रह जाते (हालांकि घटनाक्रम के ताजा अपडेट से पता चला कि श्रद्धा की मां का कुछ महीने पहले ही निधन हो गया था और श्रद्धा के माता - पिता अलग रहते थे, श्रद्धा अपनी मां के साथ रहती थी। )। अब दबे जुबान से सवाल यह भी उठने लगा है कि आफताब ने जुर्म कबूल तो कर लिया, पर सजा दिलवाने के लिए क्या इतना पर्याप्त है? सवाल का उठना लाजिमी भी है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब छावला केस के आरोपी सर्वोच्च न्यायालय से छूटे हैं। इन्हें निचली और उच्च अदालत ने जघन्यतम अपराध के लिए सज़ा सुनाई थी किंतु सुप्रीम कोर्ट में जाकर वह सज़ा बिल्कुल पलट गई। संभव है इस केस में भी ऐसा कुछ हो जाए, क्योंकि अदालत भावुकता को नहीं मानती, उसे साक्ष्य चाहिए। आप अपनी संस्कृति - मर्यादा, धर्म और परिवार का रोना रोइए कोर्ट को फर्क नहीं पड़ता।
इस घटना के बाद लिव इन कल्चर पर भी बहस छिड़ गई है। मुझे एक बात समझ नहीं आती जब पानी सर से उपर बहने लगता है तब ही क्यों दिखता है, समय रहते क्यों नहीं चेतते? ये भी तो सोचो कि ये संस्कृति अचानक तो आई नहीं, कहां से आई, क्यों विकसित हुई, कितनी गहरी जड़ है?क्या इस पर विचार किया किसी ने ?
प्रेमी - प्रेमिका के बीच झगड़ा कोई नई बात नहीं, पर बात हत्या तक पहुंच जाए तो ये प्रेम नहीं, जुनून ही हो सकता है। स्त्रियों पर अपना अधिकार जमाने वाली पुरुष मानसिकता और उसे नकारने पर पुरुष अहम को ठेस पहुंचने वाली वृत्ति भी हो सकती है। ये प्रेमी - प्रेमिका के बीच का झगड़ा नहीं ये स्त्री - पुरुष के बीच का झगड़ा रहा होगा जहां स्त्री शारीरिक रूप से कमज़ोर पड़ गई और मारी गई।
स्त्रियां अक्सर कमज़ोर पड़ जाती हैं, कभी तन से, कभी मन से। कभी पुरुष कमज़ोर बनाता है और कभी समाज। एक टिप्पणी यह भी मैंने पढ़ी - "और जाए मां -बाप के संस्कार के खिलाफ।" मतलब ?? जब संस्कार है तो उसके खिलाफ कोई कैसे जा सकता है? ऐसी टिप्पणी करने वाले शायद 'संस्कार' का अर्थ नहीं जानते। वैसे हमारा नजरिया भी कितना दोगला है… एक ही काम को एक बार सही ठहराते हैं तो एक बार गलत। जो गलत है वह गलत है। अपनी सुविधानुसार, अपनी पसंद के अनुसार गलत और सही की प्लेसमेंट अलग - अलग तरीके से तो नहीं कर सकते न? नैना साहनी की हत्या तो उसके 'पति' ने ही सिर्फ शक के बिनाह पर कर दी थी…पति ने। यहां भी पुरुष अहम को ठेस लगी। पुरुष और स्त्री के बीच टकराव में स्त्री की हार हो गई। ये पति था और आफताब लिव इन पार्टनर।
दरअसल प्रेम कोई संबंध है ही नहीं, ये तो वह एहसास है जो दो व्यक्तित्व को एकाकार कर देता है। अलग से फिर किसी एक के बारे में सोचना तो दूर कल्पना भी मुश्किल है। प्रेम संबंध में दो दिल एक अदृश्य नाल से जुड़े होते हैं। जिस क्षण प्रेम का चुंबकत्व अपना असर छोड़ने लगता है, व्यक्ति अलग होने के झूठे बहाने खोजने लगता है। तरह तरह के इल्जाम जैसी कैंची से नाल काटने की कोशिश करता है, जिसमें दोनों को तकलीफ होती है किंतु एक की तकलीफ छुटकारा पाने की खुशी में दब जाती है। रिश्ते से मन ऊब जाने पर वह सारी आदतें - कार्य जो पहले सुकून देती थीं, खुशी देती थीं, स्वार्थपूर्ण लगने लगती हैं, मसलन अगर लड़की लड़के के सारे खर्च खुशी खुशी उठा रही है या लड़का ऐसा करे तो जब तक संबंध अच्छा है तब तक सब अच्छा है जिस दिन संबंध तोड़ना हो लड़का कह सकता है कि मुझ पर खर्च कर के मुझे खरीदने की कोशिश कर रही थी, मुझे गुलाम बनाने की कोशिश थी…फलां- फलां। ये मनोविज्ञान है। साथ रहते रहते दोनों को इतना तो पता चल ही जाता है कि कौन सी बात कहां जाकर कितनी चोट करेगी? स्त्रियों के साथ भी ऐसा होता है किंतु यहां दोनों घटनाओं में प्यार में हारी फिर मारी गई तो स्त्रियां ही हैं न…तो फिलहाल तो संवेदना उन्हीं के साथ होंगी।
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