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हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )






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मुझसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँगी।
हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी
कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है।
जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें
उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता,
करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से
परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं -
"प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है;
मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है?
केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ;
दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से ,
बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी;
अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।"
उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, इसके अलावा
शतपथ ब्राह्मण, पुराणों में भी इस कथा का विस्तार है, जिसके बारे में दिनकर ने अपनी भूमिका
में भी लिखा है।
पुरुरवा के बारे में दिनकर लिखते हैं कि पुरुरवा द्वन्द्व में हैं क्योंकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का स्वभाव
होता है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी करता है,
किन्तु उर्वशी द्वंद्वों से मुक्त है। द्वंद्वों की कुछ थोड़ी अनुभूति उसे तब होती है जब वह माता
अथवा पूर्ण मानवी बन जाती है। वे लिखते हैं “इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श,
यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।” जिसके पास जो सहज उपलब्ध नहीं होता है उसे ही तो
पाने की अभिलाषा होती है, उर्वशी का आधार भी यही है। पुरुरवा के पास सबकुछ है किन्तु
वह देवत्व पाना चाहते हैं और उर्वशी देवलोक की रहने वाली, किन्तु उसे धरती का सुख चाहिए।
सूत्रधार, नटी, अप्सराएं इस काव्य नाटक को आगे बढ़ाती हैं। ‘उर्वशी’ 1961 में प्रकाशित हुई थी,
जबकि दिनकर के कवि जीवन की शुरुआत 1935 में  'रेणुका' के प्रकाशन के साथ हो चुकी थी।
हिन्दी साहित्यिक हलकों में एक ओर उर्वशी की कटु आलोचना तो दूसरी ओर उसकी मुक्तकंठ
से प्रशंसा भी हुई। धीरे-धीरे जब स्थिति सामान्य हुई तो इस काव्य-नाटक को दिनकर की
'कवि-प्रतिभा का चमत्कार' माना गया।रामधारी सिंह दिनकर की छवि देश की आज़ादी से
पहले एक विद्रोही कवि की थी।आजादी के बाद इन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि दी गई।  

रामधारी सिंह का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय ज़िले के सिमरिया गाँव में
हुआ।  उनके पिता 'रवि सिंह' एक किसान थे। दो वर्ष की छोटी सी आयु में ही उनके पिता
का साया सिर से उठ गया। उसके बाद उनका पालन पोषण उनकी माता मनरूप देवी ने
किया।दिनकर का बचपन और कैशोर्य गाँवों में बीता।  गाँवों की प्राकृतिक छटा और कोमलता
मन में ऐसी बसी की ज़िन्दगी की सभी कठोरता बेअसर साबित हुई । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह
दिनकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने लगभग हर विधा में लिखा है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह
दिनकर की कविताएँ आंदोलित करने वाली रही हैं । जब 'हुंकार' प्रकाशित हुई, तो देश के युवा
वर्ग ने इन कविताओं को अपना कंठहार बना लिया। सभी के लिए वह अब राष्ट्रीयता, विद्रोह
और क्रांति के कवि थे।दिनकर ने अनेक प्रबन्ध काव्यों की रचना की, जिनमें 'कुरुक्षेत्र','रश्मिरथी'
प्रमुख हैं। 'कुरुक्षेत्र' के नाम से अथवा उसे पढ़ते हुए अक्सर ये ग़लतफ़हमी हो जाती है कि
यह युद्ध की कविता है जबकि इसकी मूल प्रेरणा युद्ध नहीं, देशभक्त युवा मानस के
हिंसा-अहिंसा के द्वन्द्व पर आधारित है । कुरुक्षेत्र के बारे में दिनकर जी लिखते हैं “कुरुक्षेत्र
न तो दर्शन है और न किसी ज्ञानी के प्रौढ़ मस्तिष्क का चमत्कार। यह तो, अंततः , एक साधारण
मनुष्य का शंकाकुल ह्रदय ही है, जो मस्तिष्क के स्तर  पर चढ़कर बोल रहा है।”
दिनकर जी की पचास से ज़्यादा कृतियाँ प्रकाशित हैं। प्रारम्भ के उनके तीन काव्य-संग्रह –
'रेणुका' , 'हुंकार' और 'रसवन्ती'  उनके आरम्भिक युग की रचनाएँ हैं। इनमें दिनकर का कवि
अपने व्यक्ति परक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का
तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में
मिलता है। एक तरफ जहां रेणुका में वर्तमान परिवेश की नीरसता से त्रस्त मन की वेदना के
साथ ही अतीत के गौरव के प्रति कवि का सहज आदर और आकर्षण दिखाई देता है वहीं दूसरी
ओर हुंकार में कवि अतीत के गौरव-गान की अपेक्षा वर्तमान के प्रति आक्रोश प्रदर्शन की ओर
उन्मुख लगता है। ‘नीलकुसुम' से दिनकर की कविताओं में एक नया अध्याय जुड़ा । इसके
करीब छह वर्ष बाद उर्वशी प्रकाशित हुई .
दिनकर गद्य लेखन में भी सक्रीय रहे हैं। उनकी गद्य कृतियों में मुख्य हैं– उनका ग्रन्थ
'संस्कृति के चार अध्याय' , जिसमें उन्होंने मानव सभ्यता के इतिहास को चार भागों में बाँटकर
अध्ययन किया है। इसे साहित्य अकादमी के पुरस्कार भी मिला। उर्वशी को ज्ञानपीठ पुरस्कार
से नवाज़ा गया। कुरुक्षेत्र के लिए उन्हें इलाहाबाद की साहित्यकार संसद द्वारा पुरस्कृत किया
गया। दिनकर की प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियाँ हैं– 'मिट्टी की ओर' , 'काव्य की भूमिका' ,
'पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण' , हमारी सांस्कृतिक कहानी , 'शुद्ध कविता की खोज'  
दिनकर अपने युग के प्रमुख कवि ही नहीं, एक सफल गद्य लेखक भी थे। उन्होंने सरल भाषा
में विभिन्न साहित्यिक विषयों पर निबंध के अलावा बोधकथा, डायरी, संस्मरण तथा दर्शन व
इतिहासगत तथ्यों की  विवेचना भी लिखी। 24 अप्रैल 1974 को ये सूरज हमेशा के लिए अस्त हो
गया और रह गई सिर्फ यादें और उनकी कृतियां जो हमेशा युवापीढ़ी को प्रेरित करती रहेंगी।

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