हर सुबह कि तरह आज भी 6 बजे का अलार्म बजा था और हर सुबह कि तरह आज भी मै अलार्म से पहले ही जाग गयी थी. लेकिन आज नींद खुली किसी के रोने कि आवाज़ से. किसी स्त्री की सिसकियां सुबह कि नीरवता को भंग कर रही थी. मन आशंकाओं से भर गया. अनमनी सी बिस्तर से उठी और रोजमर्रा के कामों में जुट गयी. लेकिन सिसकियां अब दहाड़ वाले रुदन में बदल गयी थी. मैं ख़ुद को दफ्तर जाने कि तैयारियों में व्यस्त करने कि कोशिश कर रही थी, लेकिन दिमाग में उथल पुथल मची थी. सुबह तो कितनी शांत और सुकून होती है ना फिर आख़िर उसकी क्या तकलीफ रही होगी जो इतनी ज़ोर ज़ोर से रो रही होगी. कही उसका कोई सगा ज़िंदगी भर के लिए उसे अकेला तो नही छोड़ गया... या फिर ... तरह तरह कि आशंकाये मुझे परेशान करने लगी थी... लेकिन मैं भी पुरी तरह से अपनी भावनाओं और सम्वेदनाओ पर नियंत्रण रखते हुए अनाप शनाप सोचती रही... बस सोचती ही रही, लेकिन बाहर तभी निकली जब द़फ्तर जाने समय हो गया था . शायद मै भी बदल रही हूँ... या फिर कुछ ऐसा है मेरे अन्दर जो बदल गया है या कह सकते है कि समाज और परिस्थिति के अनुसार ढल गया है.
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