Skip to main content

बदलाव....






र सुबह कि तरह आज भी 6 बजे का अलार्म बजा था और हर सुबह कि तरह आज भी मै अलार्म से पहले ही जाग गयी थी. लेकिन आज नींद खुली किसी के रोने कि आवाज़ से. किसी स्त्री की सिसकियां सुबह कि नीरवता को भंग कर रही थी. मन आशंकाओं से भर गया. अनमनी सी बिस्तर से उठी और रोजमर्रा के कामों में जुट गयी.  लेकिन सिसकियां अब दहाड़ वाले रुदन में बदल गयी थी. मैं ख़ुद को दफ्तर जाने कि तैयारियों में व्यस्त करने कि कोशिश कर रही थी, लेकिन दिमाग में उथल पुथल मची थी. सुबह तो कितनी शांत और सुकून होती है ना फिर आख़िर उसकी क्या तकलीफ रही होगी जो इतनी ज़ोर ज़ोर से  रो रही होगी. कही उसका कोई सगा ज़िंदगी भर के लिए उसे अकेला तो नही छोड़ गया...  या फिर ... तरह तरह कि आशंकाये मुझे परेशान करने लगी थी... लेकिन मैं भी पुरी तरह से अपनी भावनाओं और सम्वेदनाओ पर नियंत्रण रखते हुए अनाप शनाप सोचती रही... बस सोचती ही रही, लेकिन बाहर तभी निकली जब द़फ्तर जाने समय हो गया था . शायद मै भी बदल रही हूँ... या फिर कुछ ऐसा है मेरे अन्दर जो बदल गया है या कह सकते है कि समाज और परिस्थिति के अनुसार ढल गया है.

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Comments

और जो अगर बदलाव नहीं हुआ होता परिस्थिति और समाज के अनुकूल आप में तो फिर वैसे में आप क्या करतीं महोदया ?
Priyambara said…
महोदय पहले मैंने बहुत सी नादानियाँ कि है, मसलन - नींद खुली किसी भिक्षुक कि गुहार से... ठंढ से बचने के लिए वो कुछ कपड़े माँग रहा था और मै बालकनी में जाकर खादी का नया चादर उनपर डाल आयी.... बाद में मालूम चला कि वो चादर उनके किसी काम का नही था उन्हें पैसा चाहिए था... ऐसी अनेक बेवकूफियां मेरे नाम है.
जी ..... दरअसल आपका ये आलेख पढ़ कर मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ . आपके जवाब से सौ टका सहमत !! अनेक में एक और जुड़ गया.
This comment has been removed by the author.

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब

यादें ....

14 फरवरी - प्रेम दिवस...सबके लिए तो ये अपने अपने प्रेम को याद करने का दिन है,  हमारे लिए ये दिन 'अम्मा' को याद करने का होता है. हम अपनी 'दादी' को 'अम्मा' कहते थे- अम्मा के व्यक्तित्व में एक अलग तरह का आकर्षण था, दिखने में साफ़ रंग और बालों का रंग भी बिलकुल सफेद...इक्का दुक्का बाल ही काले थे... जो उनके बालों के झुरमुट में बिलकुल अलग से नजर आते थे. अम्मा हमेशा कलफ सूती साड़ियाँ ही पहनती.. और मजाल था जो साड़ियों की एक क्रिच भी टूट जाए। जब वो तैयार होकर घर से निकलती तो उनके व्यक्तित्व में एक ठसक होती  । जब तक बाबा  थे,  तब तक अम्मा का साज श्रृंगार भी ज़िंदा था। लाल रंग के तरल कुमकुम की शीशी से हर रोज़ माथे पर बड़ी सी बिंदी बनाती थी। वह शीशी हमारे लिए कौतुहल का विषय रहती। अम्मा के कमरे में एक बड़ा सा ड्रेसिंग टेबल था, लेकिन वे कभी भी उसके सामने तैयार नही होती थीं।  इन सब के लिए उनके पास एक छोटा लेकिन सुंदर सा लकड़ी के फ्रेम में जड़ा हुआ आईना था।  रोज़ सुबह स्नान से पहले वे अपने बालों में नारियल का तेल लगाती फिर बाल बान्धती।  मुझे उनके सफेद लंबे बाल बड़े रहस्यमय

वसंतपुत्री का वसंत से पहले चले जाना...

ज बसे मैंने हिंदी साहित्य पढ़ना और समझना शुरू किया....तब से कुछ लेखिकाओं के लेखन की कायल रही जिनमें कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी का नाम सबसे ऊपर है। दिलचस्प ये कि दोनों ही लेखिकाओं से मिलने और साक्षात्कार करने का कभी सौभाग्य नहीं मिल सका। अपने कार्यक्रम के लिए दोनों से ही मेरी बातें हुई और दोनों ने ही हमेशा मना किया। 2015 से लेकर 2017 के बीच  कृष्णा सोबती जी से तो हर तीन चार महीने में  कॉल कर के उनकी तबियत पूछती और कैमरा टीम के साथ घर आने की अनुमति मांगती...अंततः मैं समझ गई वे इस इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं होंगी और मैंने उन्हें फोन करना बंद कर दिया। जब ज्ञानपीठ मिलने की खबर मिली तब ऐसा लगा कि शायद अब साक्षात्कार के लिए तैयार हो जाएं फिर पता चला कि तबियत खराब होने की वजह से उनकी जगह अशोक वाजपेयी जी ने उनका पुरस्कार ग्रहण किया।   वे मेरी प्रिय लेखिकाओं में से थीं और हमेशा रहेंगी। मैंने कम लेखिकाओं के लेखन में इतनी उन्मुक्तता देखी जो यहाँ पढने को मिली।  कई बार  उनकी कहानियों पर खासा विवाद भी हुआ क्योंकि  किसी लेखिका ने साहस के साथ स्त्री मन और उसकी ज़रूरतों पर  पहली बार  लिखा था।  एक वर