14 फरवरी - प्रेम दिवस...सबके लिए तो ये अपने अपने प्रेम को याद करने का दिन है, हमारे लिए ये दिन 'अम्मा' को याद करने का होता है. हम अपनी 'दादी' को 'अम्मा' कहते थे- अम्मा के व्यक्तित्व में एक अलग तरह का आकर्षण था, दिखने में साफ़ रंग और बालों का रंग भी बिलकुल सफेद...इक्का दुक्का बाल ही काले थे... जो उनके बालों के झुरमुट में बिलकुल अलग से नजर आते थे. अम्मा हमेशा कलफ सूती साड़ियाँ ही पहनती.. और मजाल था जो साड़ियों की एक क्रिच भी टूट जाए। जब वो तैयार होकर घर से निकलती तो उनके व्यक्तित्व में एक ठसक होती ।
जब तक बाबा थे, तब तक अम्मा का साज श्रृंगार भी ज़िंदा था। लाल रंग के तरल कुमकुम की शीशी से हर रोज़ माथे पर बड़ी सी बिंदी बनाती थी। वह शीशी हमारे लिए कौतुहल का विषय रहती। अम्मा के कमरे में एक बड़ा सा ड्रेसिंग टेबल था, लेकिन वे कभी भी उसके सामने तैयार नही होती थीं। इन सब के लिए उनके पास एक छोटा लेकिन सुंदर सा लकड़ी के फ्रेम में जड़ा हुआ आईना था। रोज़ सुबह स्नान से पहले वे अपने बालों में नारियल का तेल लगाती फिर बाल बान्धती। मुझे उनके सफेद लंबे बाल बड़े रहस्यमयी लगते थे, समझ नही पाती थी कि मम्मी के बाल इतने काले है फिर अम्मा के बाल सफेद क्यों ? कभी कभी तो उनसे पूछ भी लेती, वो हँसती और मम्मी से कहती "देखा हो लीलम (मम्मी का नाम नीलम है, लेकिन अम्मा उन्हें हमेशा लीलम ही कहती थी) मोनी का पूछsतरी"... और हमें एहसास हो जाता, शायद हमने कुछ ग़लत सवाल कर दिया है।
हमसब बच्चे शाम का बेसब्री से इंतज़ार करते थे ताकि अम्मा से कहानियाँ सुन सके. हालाँकि उनकी कहानियाँ फिक्स थी फिर भी हमें उनकी कहानियों में बड़ा रस आता था- कभी टकटका पुल मलमला बाज़ार , तो कभी दो ठग की कहानी, कभी उस राज्य की कहानी जहां के राजा के पुरे शरीर में सुईयां चुभीं थी, तो कभी उस शहर की कहानी जहाँ सभी बुत बन गए थे। अम्मा को कहानी की किताबें भी बेहद पसंद थीं- चंदामामा, नंदन, चम्पक, पराग, गुड़िया - ये सब उनकी पसंदीदा पुस्तकें थीं। दोपहर में अक्सर ऐसी ही कोई ना कोई किताबें पढ़ती वह मिल जाया करतीं। हम पूछ्ते "अम्मा आज यही वाली कहानी सुनाइयेगा ना ?' अम्मा बोलती "अभी पढ़े ता द। ."
अम्मा पान भी बहुत खाती थीं। पान खाने से उनके होंठ हमेशा लाल रहते। होंठों के आस पास आड़ी तिरछी रेखाओं में पान की लालिमा पसरी रह्ती... सिर्फ़ खाती ही नही थीं, बहुत शौक से पान लगाने की तैयारी भी करती । एक बड़ा सा पानदान था, जिसमें पान से संबंधित सभी सामग्री करीने से सजा कर रखी थी। एक पूरी दोपहर सरौते से कसैली काटते गुज़र जाती, फिर पान की बारी आती। पान को पानी से धोया जाता फिर अखबार के ऊपर सूखने के लिए रखा जाता उसके ऊपर पतली सी साड़ी डाल दी जाती। हम बच्चों को उन्हें पलटने का काम दिया जाता। जब पान सूख जाता तो उनकी कैंची से कटायी - छँटाई होती, फिर सहेज कर रखा जाता। उसके बाद बारी आती जर्दा बनाने की.... काला पत्ती, पीला पत्ती, सादा पत्ती, पीपरमिंट - सबको मिला कर अम्मा जर्दा बनाती, फिर अपने और बाबा के लिए पान बनाती और छोटे छोटे दो पनबट्टे में उन्हें भरकर रखतीं। एक बाबा के पास रहता और एक उनके पास। हमारे घर में तो तब पान की ही परंपरा थी। कोई भी महत्वपूर्ण काम करने जाओ तो पहले पान खाओ, किसी यात्रा पर जाओ तो पहले पान खाओ। मतलब जैसे दूसरों के लिए दही चीनी शुभ हुआ करता, हमारे घर के लिए पान शुभ हुआ करता था। .
शाम होते ही उनकी बिस्तर पर झक सफ़ेद चादरें बिछ जाती, फिर मजाल था कि कोई बच्चा बिना पाँव धोये उस बिस्तर पर चढ़ जाए। उस पर चढ़ने का अधिकार सिर्फ दीदी को होता, क्योंकि दीदी बचपन से ही उनके पास ही सोती थी। हमें कभी कभी बहुत गुस्सा भी आता, मैं तो उन्हें कह भी देती - "आप हमें प्यार नहीं करती।" तब भी उनका दिल नहीं पसीजता और मैं जब तक पैर धो कर नहीं आती बिस्तर पर चढ़ने की अनुमति नहीं मिलती।
बाबा के गुजरने के बाद काफी कुछ बदला था, अब मैं भी अम्मा के साथ उनके कमरे में सोने लगी थी। फ़िल्म देखने का शौक भी शायद हमें अम्मा से ही विरासत में मिला है - हमें आज भी याद है उन दिनों दूरदर्शन पर राजकपूर और गुरुदत्त की फिल्में दिखाई जा रही थी। अम्मा देर रात तक बैठ कर उन फिल्मों को देखा करती थी, साथ - साथ मैं भी देखा करती । उन्हें 'सुरैया' बेहद पसंद थी, 'दो बीघा ज़मीन' का ज़िक्र भी मैं पहली बार उन्ही से सुनी थी। कभी कभी अम्मा बेहद उदास हो जाती। हमेशा दुनियादारी के कामों में उलझी अम्मा को उदास देख कर मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता था, लेकिन तब यादों की टीस को समझने के लिए मैं बहुत छोटी थी। अकेलापन क्या होता है ये मैं नहीं समझ सकती थी, हमें लगता हमसब तो हैं फिर अम्मा क्यों उदास होती हैं?
अम्मा को पेट का कैंसर था, उन्हें अक्सर चक्कर आता था, पेट में दर्द होता था , और सब - यहाँ तक कि डॉक्टर भी गैस समझ उसका ही इलाज करते रहे। अंतिम स्टेज पर पता चला कि ये कैंसर है, तब खून की उल्टियाँ शुरू हो चुकी थीं। अम्मा इतनी कमज़ोर हो चुकी थीं कि बिस्तर से उठ नहीं सकती थीं। खून की उल्टी होती थी और हम उसे कॉटन से पोछते थे। आज भी याद आता है तो रोंगटा खड़ा हो जाता है ( पापा की अंतिम स्थिति भी वैसी ही थी) । फिर १४ फरवरी- आधी रात का समय- मम्मी हमारे दरवाज़े को खटखटायी- हम ( मैं और दीदी ) हड़बड़ाकर दरवाज़ा खोले मम्मी बोली अम्मा नहीं रही।
बाबा जब गुज़रे तब तो हम बहुत छोटे थे, बिलकुल अक्ल नहीं थी, लेकिन अम्मा का जाना बहुत अखरा था।
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