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ग़रीबी का मज़ाक

'स्लम डॉग मिलिनेअर' फ़िल्म में काम कर के प्रसिद्धि पा चुकी रुबीना अचानक से कल फ़िर टीवी चैनेल्स पर छाई हुई थी ... कारण बताने की ज़रूरत नही... जिसने भी चैनेल्स को देखा होगा या आज सुबह का अखबार पढ़ा होगा उसे पता होगा। उस नन्ही सी कलाकार के माता पिता पर अपनी बेटी को बेचने का आरोप लगा है। किसी ने भी ख़बर के तह में जाने की कोशिश नही की। रुबीना के फोटो को भी खुलेआम दिखाया गया कुछ चैनेल के पास तो उसके शॉट्स भी आ गए थे... और ज़्यादा स्तरीय बनाने के लिए उसके पिता को लाइन अप कर के उनसे सवाल जवाब शुरू कर दिया ...किसी ने ये सोचने की ज़हमत नही उठाई की ऐसा करने से उस लड़की और उसके पिता की क्या हालत होगी । एक बात मेरी समझ में नही आई की जब अनजानी लड़कियों के खरीद फरोख्त की खबरें अगर हम दिखातें है या उनके बारे में लिखते हैं तो उसके नाम की जगह काल्पनिक नाम लिखते है चेहरा मोजेक कर के दिखातें है फ़िर रुबीना के साथ ऐसा क्यों नही हुआ। जो पत्रकार वहां स्टिंग करने पहुचे थे उनका चेहरा तो ढका हुआ था और वही इस लड़की का और इसके पिता का चेहरा खुला हुआ था। इससे तो ये ही लग रहा था की ये सब कुछ इन्टेंशनाली किया ...

... एक युग का अंत

प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी अब हमारे बीच नहीं रहे... दुखद समाचार । 12 दिसम्बर 2008 को मैं अपनी टीम के साथ उनके घर पर थी ... एक नए कार्यक्रम की शुरुआत के लिए उनका प्रोफाइल शूट करना था। प्रभाकर जी बिस्तर पर लेटे हुए थे। उनसे जब बातें शुरू हुई तो एहसास हुआ कि उन्हें चल फ़िर नही पाने का कितना दुःख है। उन्होंने लेटे हुए ही हमसे बातें की।  उन्होंने कहा - "अब मैं ज़्यादा बोलने की स्थिति में तो हूँ नही, लेकिन आप लोग जो पूछेंगे मैं बताऊंगा ..... ।" जब उनसे उनकी श्रेष्ठ कृतियों में से एक 'आवारा मसीहा' के बारे में पूछा गया तो पहले तो वह उसे याद नहीं कर पाये, फ़िर जब उन्हें याद दिलाया गया तो वे बोल पड़े -  '"शरत चंद्र को मैंने बहुत करीब से जानने की कोशिश की तो पाया कि उन्हें हमेशा ग़लत समझा गया था।" मै कभी नही सोची थी कि कभी मैं उनसे मिल सकूंगी, बातें कर सकूंगी। वह दिन मेरी जिंदगी के कुछ अविस्मरणीय पलों में से एक था। प्रभाकर जी इससे भी दुखी थे कि जब से वे बिस्तर पर पड़े हैं उनसे मुलाक़ात करने वालों की संख्या कम हो गई है। हमेशा ...

बीत गयी होली

होली बीत गयी। घर गई थी वापस आ गई, वो भी बड़े ही बेमन से। छुट्टी से वापस आने के बाद अक्सर ये महसूस होता है कि ये छुट्टियाँ इतनी छोटी क्यों होती हैं। जो नहीं होता उसकी चाहत होती है और जो होता है वो हमेशा कम क्यों लगता है? आरा से आते समय ट्रेन में काफ़ी भीड़ थी। सभी हमारी तरह अपने अपने घरों से होली मना कर अपने अपने कार्यक्षेत्र को लौट रहे थे, या दूसरे शब्दों में सभी प्रवासी दिल्ली वापस लौट रहे थे । भीड़ इतनी ज़्यादा कि अरक्षित सीट वाले भी बेचारे सिकुडे से बैठे थे, और जिनका टिकट कन्फर्म नही हुआ था वे टी टी के आगे पीछे भाग रहे थे और टी टी, हाँ , ऐसे समय में तो इनकी लौटरी ही खुल जाती है। वो आगे आगे और लोग उनके पीछे - पीछे... कभी लोगों को समझाते हुए तो कभी उन्हें झिड़कते हुए " अगर इतना लंबा सफर और ऐसे समय में करना था तो रिजर्वेशन पहले से क्यों नहीं लिया, "। बेचारे लोग सारी बातों को सुनकर भी उसके पीछे लगे थे की शायद उनपर तरस खाकर इतना सब सुनने के बाद उन्हें एक सीट मिल ही जाए। वे लोग जिनके पास बर्थ नही था उनके पास तीन ऑप्शन्स थे (... और होंगे तो मुझे नही पता ) पहला की वो बर्थ के निच...

भीख मांगने की मजबूरी

दिल्ली में जहाँ देखो एक चीज़ बड़ी ही कोमोन नज़र आती है वो है हर गली, नुक्कड़, चौक- चौराहों, रेड लाइट्स पर भीख मांगने वालों की अच्छी खासी तादाद। अगर मंगलवार हो तो हनुमान मन्दिर, गुरुवार हो तो साईं मन्दिर, शुक्रवार हो तो मस्जिद और शनिवार को शनि मन्दिर के आस पास भीख मांगने वालों से मुलाक़ात हो ही जाती है। कहीं शारीरिक विकलांगता भीख मांगने पर मजबूर करती है तो कहीं अच्छा भला आदमी भीख के लिए ख़ुद के विकलांग होने का ढोंग रचता है। ये मैं यू ही नहीं लिख रही हूँ... मैंने अपनी आंखों से देखा है। अक्सर ऑफिस जाने के लिए मुझे जनपथ से होकर जाना पड़ता है। वहां एक हाथ वाली , कद काठी से अच्छी भली लड़की भीख मांगती अक्सर नज़र आ जाएगी। बहुत सारे लोगों ने अक्सर उसपर तरस खाकर उसे पैसे भी दिए होंगे, क्योंकि एक बार ये गलती मैं भी कर चुकी हूँ। हाल ही में मैं बस से उस रास्ते से गुज़र रही थी तो देखा उसने अपने गंदे और ढीले से समीज में अपने दूसरे हाथ को छिपाए लोगों से एक हाथ से भीख मांग रही थी। जैसे ही लाल बत्ती खुली वो फ़िर से अपने दोस्तों के साथ मिलकर दोनों हाथों से समोसे खाने लगी। मुझे ये देखकर बेहद अफ़सोस हुआ, साथ ही ...

गाँधी या कमांडो ?

इन दिनों आईडिया का एक विज्ञापन टीवी चैनेल्स पर छाया हुआ है। विज्ञापन में एक लड़की होती है जिसे बस स्टैंड पर एक युवक छेड़ रहा होता है। वो अपने मोबाइल फ़ोन से सबसे सुझाव मांगती है... दो ऑप्शन्स होते हैं ... गाँधी या कमांडो ? जनता का मेस्सज आता है, जिनमे निन्यानवें प्रतिशत लोगों का मत होता है कमांडो सिर्फ़ एक प्रतिशत का ही वोट गाँधी को जाता है। उसके बाद लड़की एक किक्क मारती है और इव टीसर चारों खाने चित्त। विज्ञापन देखकर एक सवाल मेरे मन में उठा की क्या इस तरह से महात्मा गांधी की तुलना करना और फ़िर उन्हें हारते हुए दिखाना उचित है? मैं यही सवाल आप सभी से करती हूँ ... क्या ये उचित है? जिसने भी इस विज्ञापन की स्क्रिप्टिंग की हो अगर वो अपनी स्क्रिप्ट में थोड़ा सा फेर बदल कर लिया होता और गाँधी की जगह गांधीगिरी कर देता तो शायद उसका अर्थ थोड़ा अलग हो जाता...या फ़िर ये हो सकता है की मैं इसे लेकर कुछ ज़्यादा सोंच गई, पर ये सच है की हाँ मुझे ये अच्छा नहीं लगा।

प्रेम पर्व और प्रिये तुम

प्रेम.... प्यार ... इश्क.... मोहब्बत... कितने अच्छे शब्द हैं । किसी ज़माने में प्रेम में पड़े लोगों के लिए इनका गहरा मतलब हुआ करता था। एक प्यार से भरा दिल अपनी चाहत का इज़हार अक्सर पत्रों के माध्यम से किया करता था। फ़िर वो पत्र या तो 'मुग़ल ऐ आज़म ' फ़िल्म की तरह कमल के फूल की पंखुरियों में छिपा कर बहते जल के मध्यम से प्रियतमा तक पहुँचाया जाता था, या फ़िर किताबों में रख कर या फ़िर 'मैंने प्यार किया' फ़िल्म की तरह कबूतर बनता था संदेशवाहक। कितना रोमांटिक हुआ करता होगा तब प्रेम पत्र, जिसे पढ़ते ही नायिका चाहे ना चाहे इजहारे मोहब्बत को तुंरत स्वीकार कर लेती थी। आज दुनिया हाईटेक हो गई है, नायक नायिका बिंदास हो गए हैं। आज मिले...कल प्यार हुआ.... परसों शादी... और फ़िर तलाक, मामला ख़त्म और फ़िर नई कहानी शुरू । हाथ में मोबाइल है ...घर में कंप्यूटर। जब मन किया एस एम् एस कर दिया या फ़िर बहुत दिल से इज़हार करना है तो प्रेम पर्व तो है ही.... साथ ही है हाई टेक ग्रीटिंग्स, बस एक क्लिक करने भर की देरी है। "वैलेंटाइन डे " यानी नए ज़माने का प्रेम पर्व। यानी अपने जज़्बात को बताने का ए...

... समय के साथ बदल रही है गाँधी जी की सीख

एक समय था जब गाँधी जी के बंदरों की कहानी जूनियर स्कूल की किताबों में हुआ करती थी। बचपन में ही गाँधी जी के बंदरों का महत्व बताया जाता था। एक बन्दर जो अपनी आँखें बंद किया है उसका अर्थ है बुरा मत देखो , दूसरा जो मुंह बंद किया है उसका मतलब है बुरा मत बोलो और तीसरा जो कान बंद किया है उसका अर्थ है बुरा मत सुनों। वक्त बदला ... समाज बदला और आज के सन्दर्भ में उसका अर्थ भी बदल गया है। आज पहले बन्दर का अर्थ है कुछ भी ग़लत होता रहे आँखें बंद रखो, दूसरे का मतलब है चाहे तुम जानते हो की ये सही है और ये ग़लत दूसरों को कभी सलाह मत दो, और जिसने कान बंद किया है उसका मतलब है तुम्हारे सामने कुछ भी ग़लत हो अपने कान बंद रखो ताकि दूसरों की परेशानिओं से तुम्हे परेशानी ना हो। समय के साथ सीख भी बदल गई। लेकिन अफ़सोस तब हुआ जब मेरे एक बहुत ही पसंदीदा ब्लॉग में महात्मा गाँधी के चौथे बन्दर की कहानी को छापा गया। ऐसा लगा जैसे गाँधी जी की शिक्षा या फ़िर उनकी बातों का मजाक बनाया जा रहा है। मुझे काफ़ी अफ़सोस हुआ और शायद हर उस बन्दे को अफ़सोस हो जो महात्मा गाँधी का सम्मान करता हो। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!