उदास सिर्फ मनुष्य ही नहीं होते. पशु-पक्षी-पेड़-पौधे सब पर उदासी छाती है. सभी मातम मनाते हैं . फिजाएं भी अपनी रौनक खो देती है. धरती और प्रकृति के लिए भले ही साँस लेना आसान हुआ हो पर वह प्रसन्न तो हरगिज़ नहीं है. यह महसूस किया जा सकता है.
पूरे 20 दिन बाद आज सुबह 7 बजे ऑफिस के लिए निकली थी. इन 20 दिनों में मेरी ज़िन्दगी, मेरे फ्लैट तक सिमट कर रह गयी थी. ज़रूरत पड़ने पर नीचे स्थित किराने की दूकान में जाना हो रहा था. 20 दिनों बाद मुख्य सड़क पर निकलना...जैसे सारे रास्ते अजनबी हो गए हों. दिल्ली की सुबह कभी इतनी खामोश नहीं देखी. न ट्रैफिक की मारामारी, न किसी तरह की चिल्ल पौं थी. जगह-जगह बैरीकेडिंग. पिछले 20 दिनों में काफी कुछ है जो बदल गया है. 'कोविड 19' ने न सिर्फ लोगों की रहन-सहन को बदल दिया है, बल्कि सोचने समझने की शक्ति में भी बदलाव आया है. सभी 'भय और शक' की गिरफ्त में हैं. सभी किसी उहापोह में जी रहे . घर पर सबकुछ है पर फिर भी ख़ुशी नहीं.
आज से 20 दिन पहले सेमल के वृक्ष लाल फूलों से लदे थे. आज वे ठूंठ से रह गए हैं, कुछ वृक्षों में फूलों का स्थान हरी-ज़र्द पत्तियों ने ले लिया है. रास्ते में, सड़कों के किनारे पीले पत्ते यहाँ से वहाँ तक बिखरे पड़े थे. हमेशा सजी-धजी रहने वाली दिल्ली आज उदास दिख रही थी. इन सब के बीच जकारांडा यानी नीला गुलमोहर अपने रौ में दिखा . वह तमाम दुखों में खुश रहने की प्रेरणा दे रहा था. उसके नीले-बैंगनी फूलों के गुच्छे आँखों को सुकून दे रहे थे.
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