आज मैं आपणें घर दा नंबर मिटाइआ है
ते गली दे मत्थे ते लग्गा गली दा नांउं हटाइया है-
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
– समझना वह मेरा घर है-
सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम पंजाबी के साथ ही हिंदी के पाठकों के दिलों में आज भी ज़िंदा हैं। मूलतः पंजाबी
में लिखने वाली अमृता जी की ज़्यादातर रचनाएँ हिंदी में भी उपलब्ध हैं। किशोरावास्था से ही लेखन कार्य शुरू
करने वाली अमृता ने कविताएँ, कहानियों सहित विभिन्न विधाओं में लिखा और इसके लिए उन्हें देश और अनेक
सम्मान और पुरस्कार मिले। उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ को भी लोगों ने खूब पसंद किया।
में लिखने वाली अमृता जी की ज़्यादातर रचनाएँ हिंदी में भी उपलब्ध हैं। किशोरावास्था से ही लेखन कार्य शुरू
करने वाली अमृता ने कविताएँ, कहानियों सहित विभिन्न विधाओं में लिखा और इसके लिए उन्हें देश और अनेक
सम्मान और पुरस्कार मिले। उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ को भी लोगों ने खूब पसंद किया।
अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 में पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था। बचपन लाहौर में बीता, शिक्षा भी
लाहौर में ही हुई। छोटी सी उम्र में माँ का साया सिर से उठ गया था, जिसकी कमी अमृता ने ताज़िन्दगी महसूस
की। पिता से मिले संस्कार ने उन्हें लेखन के लिए प्रेरित किया। सोलह साल की छोटी सी उम्र में ही कविता संग्रह
का प्रकाशन उन्हें कवियित्री के रूप में स्थापित करने की दिशा में पहला कदम था। उसके बाद तो उन्होंने
कविताओं, कहानियों और लेखों की झड़ी लगा दी। अमृता ने हिंदुस्तान के विभाजन के दर्द को करीब से देखा
था। अक्सर वह दर्द कहानी या कविता के रूप में छलक जाया करता था। ऐसी ही एक कविता ‘अज्ज आखाँ
वारिस शाह नूँ’’ उन्होंने विभाजन के दौरान पंजाब प्रान्त में होने वाली हिंसा पर लिखी थी। पिंजर कहानी भी
उस दर्द को उकेरने में पूर्ण रूप से कामयाब रही थी, जिसपर बाद में फिल्म भी बनी। पूरी कहानी पुरो नाम
की एक हिन्दू युवती के इर्द गिर्द बुनी गयी है। पुरो का विवाह होने वाला होता है, तभी एक मुस्लिम युवक,
परिवार से बदला लेने के लिए उसका अपहरण कर लेता है। एक के बाद एक कई घटनाएं घटती हैं, बहुत से
उतार चढ़ाव आते है। आखिरकार पुरो उसी मुस्लिम परिवार को अपना लेती है। कहानी आज़ादी से पूर्व के
भारत से शुरू होकर विभाजन के संताप को झेलता आज़ादी के बाद के भारत तक की है। इस उपन्यास पर
2003 में फिल्म बनायी गयी थी, जिसे काफी सराहा गया । उर्मिला मातोंडकर, मनोज वाजपेयी और संजय
सूरी द्वारा अभिनीत इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। पिंजर अमृता प्रीतम की सबसे अच्छी रचनाओं में
से एक है। इस उपन्यास के माध्यम से ना सिर्फ विभाजन के दर्द को चित्रित किया गया है बल्कि एक स्री के
संघर्ष को भी कलमबद्ध किया गया है। अमृता की कविताएँ आज भी हर दिल अजीज़ हैं। चाहे वह पंजाबी भाषा
में उपलब्ध हों या फिर उसका हिंदी अनुवाद हों। सौ से ज़्यादा किताबें लिखने वाली अमृता प्रीतम को पंजाबी
भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। अमृता की आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी काफी चर्चित रही है। इस
पुस्तक में उन्होंने अनेक घटनाओं और संस्मरण का ज़िक्र किया है। इस पुस्तक में उन्होंने अपने और साहिर के
रिश्ते को भी पाठकों के समक्ष ख्याल कर रख दिया। उनकी दिलचस्प कथन शैली की वजह से इस पुस्तक
को पाठकों का खूब प्यार मिला। अमृता अपनी शर्त पर जीने वाली महिलाओं में से एक थी। उन्होंने ये साबित
किया कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, एक अलग सौंदर्य और तेवर है, जिसे नकारा नहीं
जा सकता और वे उसका प्रतिनिधित्व करती हैं। अमृता की लोकप्रियता देश-विदेश में फैली हुयी थी। 1957 में
साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1981 में “कागज़ ते कैनवास” के लिए ज्ञानपीठ से सम्मानित होने वाली अमृता को
विदेशों में भी काफी सम्मान मिला। अमृता प्रीतम ने एक बार लिखा था- मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती और
लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं। उनके
लिखे हर हर्फ़ वाकई देवताओं को जगाने वाले-से ही लगते हैं। अमृता ने साहिर से प्रेम किया और इमरोज़ ने
बिना शर्त अमृता से प्रेम किया। आज भी इमरोज़ का स्टूडियो अमृता की तस्वीरों से अटा पड़ा है। अमृता से
जुडी हर यादों को उन्होंने सम्हाल कर रखा है। वहाँ सजाई गयी हर तस्वीर-चित्र कुछ ना कुछ कहतीं हैं।
अमृता का नेमप्लेट भी वहाँ आज भी सुरक्षित है। इमरोज़ को ज़रा सा कुरेदो तो यादों का पिटारा खुल जाता है।
उम्र ने जुबां को अस्पष्ट कर दिया पर यादों पर उसका नियंत्रण नहीं चल सका। इमरोज़ ने 45 साल से ज़्यादा
समय तक अमृता के साथ जीवन साझा किया। वे बताते हैं कि अमृता अक्सर बिस्तर पर ही लिखा करती थीं।
उनके लिखने का कोई तय समय नहीं हुआ करता था। लेकिन रात का समय उनके लेखन के लिए सबसे सही
हुआ करता था। जब वातावरण में शान्ति छा जाया करती थी, मिलने आने वाले लोगों की आवाजाही बंद हो
जाती थी, तब वे लिखने बैठतीं। लिखते समय उन्हें सिर्फ चाय चाहिए होती थी। इमरोज़ उन्हें चाय बनाकर दे
देते और वे तल्लीनता से लेखन कार्य करतीं। वे बताते हैं कि उनकी दिनचर्या भी एकदम सरल थी। हर तस्वीर,
यहां तक की दीवारों से भी जुडी कई अनमोल यादें हैं। अमृता और इमरोज़ की पहली मुलाक़ात की भी कहानी
दिलचस्प है। अमृता ने एक चित्रकार सेठी से अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध
किया था. सेठी ने कहा कि वो एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो ये काम उनसे बेहतर कर सकता है….
और फिर अमृता की मुलाक़ात इमरोज़ से हुयी। इमरोज़ की सीप में अमृता की यादों के मोती संरक्षित हैं जो
बिखर जाएं तो प्रेम की नयी परिभाषा लिख जाएं।
लाहौर में ही हुई। छोटी सी उम्र में माँ का साया सिर से उठ गया था, जिसकी कमी अमृता ने ताज़िन्दगी महसूस
की। पिता से मिले संस्कार ने उन्हें लेखन के लिए प्रेरित किया। सोलह साल की छोटी सी उम्र में ही कविता संग्रह
का प्रकाशन उन्हें कवियित्री के रूप में स्थापित करने की दिशा में पहला कदम था। उसके बाद तो उन्होंने
कविताओं, कहानियों और लेखों की झड़ी लगा दी। अमृता ने हिंदुस्तान के विभाजन के दर्द को करीब से देखा
था। अक्सर वह दर्द कहानी या कविता के रूप में छलक जाया करता था। ऐसी ही एक कविता ‘अज्ज आखाँ
वारिस शाह नूँ’’ उन्होंने विभाजन के दौरान पंजाब प्रान्त में होने वाली हिंसा पर लिखी थी। पिंजर कहानी भी
उस दर्द को उकेरने में पूर्ण रूप से कामयाब रही थी, जिसपर बाद में फिल्म भी बनी। पूरी कहानी पुरो नाम
की एक हिन्दू युवती के इर्द गिर्द बुनी गयी है। पुरो का विवाह होने वाला होता है, तभी एक मुस्लिम युवक,
परिवार से बदला लेने के लिए उसका अपहरण कर लेता है। एक के बाद एक कई घटनाएं घटती हैं, बहुत से
उतार चढ़ाव आते है। आखिरकार पुरो उसी मुस्लिम परिवार को अपना लेती है। कहानी आज़ादी से पूर्व के
भारत से शुरू होकर विभाजन के संताप को झेलता आज़ादी के बाद के भारत तक की है। इस उपन्यास पर
2003 में फिल्म बनायी गयी थी, जिसे काफी सराहा गया । उर्मिला मातोंडकर, मनोज वाजपेयी और संजय
सूरी द्वारा अभिनीत इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। पिंजर अमृता प्रीतम की सबसे अच्छी रचनाओं में
से एक है। इस उपन्यास के माध्यम से ना सिर्फ विभाजन के दर्द को चित्रित किया गया है बल्कि एक स्री के
संघर्ष को भी कलमबद्ध किया गया है। अमृता की कविताएँ आज भी हर दिल अजीज़ हैं। चाहे वह पंजाबी भाषा
में उपलब्ध हों या फिर उसका हिंदी अनुवाद हों। सौ से ज़्यादा किताबें लिखने वाली अमृता प्रीतम को पंजाबी
भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। अमृता की आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी काफी चर्चित रही है। इस
पुस्तक में उन्होंने अनेक घटनाओं और संस्मरण का ज़िक्र किया है। इस पुस्तक में उन्होंने अपने और साहिर के
रिश्ते को भी पाठकों के समक्ष ख्याल कर रख दिया। उनकी दिलचस्प कथन शैली की वजह से इस पुस्तक
को पाठकों का खूब प्यार मिला। अमृता अपनी शर्त पर जीने वाली महिलाओं में से एक थी। उन्होंने ये साबित
किया कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, एक अलग सौंदर्य और तेवर है, जिसे नकारा नहीं
जा सकता और वे उसका प्रतिनिधित्व करती हैं। अमृता की लोकप्रियता देश-विदेश में फैली हुयी थी। 1957 में
साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1981 में “कागज़ ते कैनवास” के लिए ज्ञानपीठ से सम्मानित होने वाली अमृता को
विदेशों में भी काफी सम्मान मिला। अमृता प्रीतम ने एक बार लिखा था- मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती और
लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं। उनके
लिखे हर हर्फ़ वाकई देवताओं को जगाने वाले-से ही लगते हैं। अमृता ने साहिर से प्रेम किया और इमरोज़ ने
बिना शर्त अमृता से प्रेम किया। आज भी इमरोज़ का स्टूडियो अमृता की तस्वीरों से अटा पड़ा है। अमृता से
जुडी हर यादों को उन्होंने सम्हाल कर रखा है। वहाँ सजाई गयी हर तस्वीर-चित्र कुछ ना कुछ कहतीं हैं।
अमृता का नेमप्लेट भी वहाँ आज भी सुरक्षित है। इमरोज़ को ज़रा सा कुरेदो तो यादों का पिटारा खुल जाता है।
उम्र ने जुबां को अस्पष्ट कर दिया पर यादों पर उसका नियंत्रण नहीं चल सका। इमरोज़ ने 45 साल से ज़्यादा
समय तक अमृता के साथ जीवन साझा किया। वे बताते हैं कि अमृता अक्सर बिस्तर पर ही लिखा करती थीं।
उनके लिखने का कोई तय समय नहीं हुआ करता था। लेकिन रात का समय उनके लेखन के लिए सबसे सही
हुआ करता था। जब वातावरण में शान्ति छा जाया करती थी, मिलने आने वाले लोगों की आवाजाही बंद हो
जाती थी, तब वे लिखने बैठतीं। लिखते समय उन्हें सिर्फ चाय चाहिए होती थी। इमरोज़ उन्हें चाय बनाकर दे
देते और वे तल्लीनता से लेखन कार्य करतीं। वे बताते हैं कि उनकी दिनचर्या भी एकदम सरल थी। हर तस्वीर,
यहां तक की दीवारों से भी जुडी कई अनमोल यादें हैं। अमृता और इमरोज़ की पहली मुलाक़ात की भी कहानी
दिलचस्प है। अमृता ने एक चित्रकार सेठी से अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध
किया था. सेठी ने कहा कि वो एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो ये काम उनसे बेहतर कर सकता है….
और फिर अमृता की मुलाक़ात इमरोज़ से हुयी। इमरोज़ की सीप में अमृता की यादों के मोती संरक्षित हैं जो
बिखर जाएं तो प्रेम की नयी परिभाषा लिख जाएं।
इमरोज़ होना आसान नहीं। अमृता ने खाना बनाना भी इमरोज़ के उनके जीवन में आने के बाद हीं सीखा। कुछ रिश्ते शब्दों से परे होते हैं, ये रिश्ता भी कुछ ऐसा हीं रहा। अमृता की आखिरी कविता जिसे उन्होंने इमरोज़ के नाम किया -
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं---------
31 अक्टूबर 2005, जब अमृता ने आखिरी सांसें ली। अमृता…आज भी ज़िंदा हैं अपनी कृतियों में, तस्वीरों में
और… इमरोज़ की यादों में।
और… इमरोज़ की यादों में।
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
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