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सिर्फ विरोध के लिए विरोध या कुछ और ?





बचपन में चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मावती और उसके जौहर की कथा खूब सुनी थी।

किसी बाल पुस्तक में भी राजा रतन सिंह की बहादुरी के किस्से और पद्मावती के

जौहर की कथा पढ़ी थी। लोककथाओं में आज भी उनके किस्से ज़िंदा हैं।

फिर उन किस्सों को फिल्म के माध्यम से दिखाए जाने पर इतना बवाल क्यों ?

हमें किस पर आपत्ति होनी चाहिए ? क्या आज हम फंतासी और सत्य के बीच का

फर्क भूलते जा रहे हैं या फिर हम सब किसी भ्रम अथवा किसी पूर्वाग्रह में जी रहे हैं।     

 

संजय लीला भंसाली ने पद्मावती में भी अपने पुराने अंदाज़ को बरक़रार रखा है।

उन्हें अगर ‘शो मैन’ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनकी फिल्मों का

एक स्टाइल है। उनकी फिल्मों में एक भव्यता दिखाई देती है जो आप सिनेमा हॉल

में हीं महसूस कर सकते हैं। संगीत में परिवेश-माहौल का पूरा असर दिखाई पड़ता है।

इस फिल्म में भी उन्होंने लोकधुन और लोकगीतों का इस्तेमाल किया है। एक तरफ

राजस्थान के लोकगीत तो दूसरी ओर शेरो  शायरी और अरबिक वाद्यंत्रों का प्रयोग।

मैंने जायसी के पद्मावत को नहीं पढ़ा है लेकिन इस फिल्म को देखकर उसकी कमी

नहीं खली। अलाउद्दीन खिलजी की बर्बरता, पद्मावती का सौंदर्य, राजा रतन सिंह

का शौर्य, उसूल, वचन ये सबकुछ फिल्म में है। दीपिका तो अच्छी अदाकारा हैं,

इसमें भी उन्होंने अच्छा किया है….ये कह सकते हैं कि अपनी पिछली फिल्मों से

वे अलग नही दिखी हैं, शाहिद भी रतन सिंह के किरदार में ठीकठाक हैं,

लेकिन रणवीर सिंह अलाउद्दीन के किरदार में खूब जमे हैं, इतने कि उनसे

घृणा हो जाए। अंतिम दृश्य रोंगटे खड़े करने वाला है। धोखे से राजा रतन सिंह

को मार दिया जाता है।  उसकी मौत के बाद अलाउद्दीन दौड़ पड़ता है चित्तौड़गढ़ के

किले की ओर।  किले के बंद दरवाज़े को तोड़कर किले में वो दाखिल हो जाता है।

तब सारी स्त्रियां मिल कर उनका अंत तक मुक़ाबला करती हैं और अंत में अपने

आत्मसम्मान और इज़्ज़त के लिए जौहर कर लेती हैं। ये वो दृश्य है जब रोंगटे

खड़े हो गए।  लाल साडी में हज़ारों की संख्या में औरतें जौहर के लिए जा रही थी,

और काले कपड़ों में वहशी दरिंदे की तरह हाथ में तलवार लिए, लम्बे बालों को

बिखराए खिलजी बदहवास उनके पीछे भागा जा रहा था।  अंत में लपटें

और फिर सबकुछ ख़त्म …

 

हाँ इसे 3डी में बनाने का मतलब समझ नहीं आया, क्योंकि बिना 3डी के भी

फिल्में देखी हैं और वे असरदार साबित हुयी हैं, खैर…. अगर ढूंढने बैठो तो

अच्छाई और खामियां हर फिल्म में होती हैं, लेकिन फिल्म को बिना किसी

पूर्वाग्रह के देखा जाए तो आनंद लिया जा सकता है। कोई फिल्म पसंद आ

सकती है, नापसंद भी हो सकती है लेकिन विरोध ! इसका उचित तर्क अब

तक समझ नहीं आया।  जिन्हें लगता है विरोध से दर्शक कम हो जाएंगे वे

सबसे बड़े वाले बेवक़ूफ़ हैं उलटा उन्होंने दर्शक बढ़ा दिए हैं।  मैं जब फिल्म

देखने गई थी पूरा हॉल भरा था। पुलिस की सुरक्षा थी तो बेहतर है विरोधी

भी ठंढे दिमाग से जाकर फिल्म देखें फिर उस पर चर्चा करें और समर्थन

अथवा विरोध करें।

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