Skip to main content

Posts

Showing posts from 2018

टुकड़े में ज़िन्दगी ( कहानी)

https:// epaper.prabhatkhabar.com/ 1918875/Surbhi/Surbhi#page/ 6/1  ( एक और कहानी प्रकाशित ) © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

जो बीत गई सो बात गई

"जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई " शायद आठवीं या नौवीं कक्षा में थी जब ये कविता पढ़ी थी... आज भी इसकी पंक्तियाँ ज़ेहन में वैसे ही हैं।  उससे भी छोटी कक्षा में थी तब पढ़ी थी - "आ रही रवि की सवारी। नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्‍वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी।" बच्चन जी की ऐसी न जाने कितनी कविताएँ हैं जो छात्र जीवन में कंठस्थ हुआ करती थीं। संभव है इसका कारण कविताओं की ध्वनि-लय और शब्द रहे हों जिन्हें कंठस्थ करना आसान हो। नौकरी के दौरान बच्चन जी की आत्मकथा का दो भाग पढ़ने को मिला और उनके मोहपाश में बंधती चली गयी। उसी दौरान 'कोयल, कैक्टस और कवि' कविता पढ़ने का मौका मिला। उस कविता में कैक्टस के उद्गार  - "धैर्य से सुन बात मेरी कैक्‍टस ने कहा धीमे से, किसी विवशता से खिलता हूँ,

बिहार का अर्थ ही होता है छठ

उस दिन का इंतज़ार कर रही जब साड़ी-चूड़ी पहनने... हाथ जोड़कर नमस्कार करने, इन्हें भी गुलामी और अंधविश्वास का प्रतीक माना जाएगा।  जो हिन्दू आस्था के खिलाफ जितना घटिया बोलेगा/लिखेगा वह सर्वाधिक बुद्धिसंपन्न माना जाएगा।  'हिन्दू आस्था' जी हाँ...क्योंकि सिन्दूर पर शुरू हुई चर्चा आँचल पसारने और इकहरी सूती साड़ी पहनकर पानी में भीगने और अंग प्रदर्शन तक पहुँच गई।  समझ नहीं आता कि इन महान लोगों की  ऐसी तार्किक और क्रांतिकारी सोच 'छठ पूजा' दौरान ही क्यों उमड़-उमड़ कर बाहर आती है।  कभी तो ये लगता  है कि इन्हें भी पता है कि इनकी लोकप्रियता उसी क्षेत्र के लोगों से है जिन्हें ये अनपढ़, अंधविश्वासी और भी न जाने किस-किस उपमा से सम्बोधित करती रहती हैं, और इस क्षेत्र के लोग उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ते रहते हैं। यह सवाल भी मन में उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी 'बिहारी' ने इन्हें कुछ व्यक्तिगत क्षति पहुंचाई हो?  जिस छठ को लेकर हर बार ये लोग हाय तौबा मचाते हैं, जिसके हर विधि-विधान  पर इन्हें समस्या है, मुझे लगता है कि शायद इन्हें कभी मौक़ा नहीं मिला कि वे इसके साक्षी भी बने

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब

हिंदी की विवशता

हिंदी सिर्फ हमारी भाषा नहीं बल्कि एक पूरी संस्कृति है। विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में चौथे स्थान पर है हिंदी। आंकड़ों के लिहाज से यह कहा जा सकता है कि आज हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है। हिंदी भाषी जहां भी गए हिंदी के साथ ही उसकी सम्पूर्ण संस्कृति लेकर गए, जिन्हें नए देश की आबो हवा में भी संरक्षित रखा और नए सिरे से प्रसारित करने का काम किया। मॉरीशस भी ऐसे ही देशों में से एक है जहां अठारहवीं सदी में बड़ी संख्या में भारतीयों को मजदूरी करने के उद्देश्य से लाया गया था। इन्हीं मजदूरों ने नए मॉरीशस की नींव रखी। वर्तमान समय में मॉरीशस को छोटा भारत की संज्ञा दी जाती है। आर्यसभा संस्था 1903 से हिंदी के प्रचार प्रसार एवं सामाजिक कार्यों में लगी है। आज इस संस्था की 200 से ज़्यादा शाखाएं हैं जो हिंदी सिखाती है। इस संस्था की नींव रखे जाने के पीछे की घटना भी दिलचस्प है। गिरमिटिया देशों में हिंदी काफी फली फूली। त्रिनिदाद एवं टोबैगो के रहने वाले पंडित रामप्रसाद परिसान बताते हैं कि हिंदी को इन देशों में दूसरी भाषा का दर्जा प्राप्त है। छोटे-छोटे रोजमर्रा के शब्दों क

इमरोज़ होना आसान नहीं...

आज मैं आपणें घर दा नंबर मिटाइआ है ते गली दे मत्थे ते लग्गा गली दा नांउं हटाइया है- आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ यह एक शाप है, एक वर है और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े – समझना वह मेरा घर है- सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम पंजाबी के साथ ही हिंदी के पाठकों के दिलों में आज भी ज़िंदा हैं। मूलतः पंजाबी में लिखने वाली अमृता जी की ज़्यादातर रचनाएँ हिंदी में भी उपलब्ध हैं। किशोरावास्था से ही लेखन कार्य शुरू करने वाली अमृता ने कविताएँ, कहानियों  सहित विभिन्न विधाओं में लिखा और इसके लिए उन्हें देश और अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले। उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ को भी लोगों ने खूब पसंद किया। अ मृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 में पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था।  बचपन लाहौर में बीता, शिक्षा भी लाहौर में ही हुई। छोटी सी उम्र में माँ का साया सिर से उठ गया था, जिसकी कमी अमृता ने ताज़िन्दगी महस

धीरे-धीरे…

एक और कहानी... उसके हिस्से की धूप   © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

धीरे-धीरे ही सही...

एक और कहानी... दैनिक भास्कर के नोएडा संस्करण में 'पराली का प्रेत' कहानी... © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

तुम्हारे लिए

हर्फ़-हर्फ़ पढ़ती हूँ... बार-बार, कई बार कितने ही भावों से गुज़रती हूँ हर एहसासों से जोड़ लेती हूँ खुद को  कभी-कभी शब्दों से टकरा जाती हूँ  तो कभी उन्हें समाहित कर लेती हूँ स्वयं में तब बोझिल मन नई ऊर्जा से भर उठता है ये शब्दों का जादू है जो डूबती शाम को नई सुबह का न्यौता दे जाता है! सच-सच बताना ! शब्दों से अंतर्मन की यात्रा के पीछे कितने जन्मों की तपस्या छिपी है? कितना यथार्थ भोगा है तुमने? कितने गर्म झरनों को महसूस किया ? शब्दों को गढ़ने से पहले उसकी ऊष्मा से कितनी बार गुज़रे ? सच-सच बताना... क्योंकि मैं जानती हूँ मन के छिलन की कल्पना ज़रा मुश्किल है जादूगर ! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

जाना -हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है

प हली बार साहित्य संसार के माध्यम से उन्हें सुनने का मौक़ा मिला था लेकिन तब मेरा काम सिर्फ और सिर्फ कार्यक्रम का प्रोडक्शन था।  इसलिए मेरा पूरा ध्यान कैमरे के कोण पर टिका था। कार्यक्रम खत्म होने के बाद हमारी बेहद छोटी और औपचारिक बातचीत हो सकी। शायद 2008 या 2009 की बात रही होगी।  उसके बाद पूरे आठ या नौ साल बाद उनका साक्षात्कार लेने का मौक़ा मिला। ये मौक़ा भी बहुत मुश्किल से मिला था। इसके लिए मैंने जाने कितनी बार उनसे फ़ोन पर बातें की।  हर बार वे तबियत खराब की बात कहकर टाल जाते थे। कभी वे दिल्ली से बाहर होते, जब दिल्ली में होते तो तबियत खराब है बोल कर बात टाल जाते और हर बार उनका साक्षात्कार करने का मेरा जोश कम पड़ जाता। एक दिन जब अनामिका जी के साक्षात्कार के लिए मैं उनके घर पहुंची थी उस दिन वहीं अचानक मेरी मुलाक़ात केदारनाथ जी से हुई। मैंने उनसे बात की और उन्होंने आज्ञा दे दी। तय दिन उनके घर पहुंचना था। अपनी ओर से पूरी तरह सतर्क थी कि कहीं गलती से भी मुझे देर ना हो जाए। साक्षात्कार शुरू हुआ।  धीरे-धीरे मैं भी सहज होती गई। उन्होंने अपनी प्रिय कविता कपास के फूल सुनाई। कविता सुनाने के