उस दिन का इंतज़ार कर रही जब साड़ी-चूड़ी पहनने... हाथ जोड़कर नमस्कार करने, इन्हें भी गुलामी और अंधविश्वास का प्रतीक माना जाएगा। जो हिन्दू आस्था के खिलाफ जितना घटिया बोलेगा/लिखेगा वह सर्वाधिक बुद्धिसंपन्न माना जाएगा। 'हिन्दू आस्था' जी हाँ...क्योंकि सिन्दूर पर शुरू हुई चर्चा आँचल पसारने और इकहरी सूती साड़ी पहनकर पानी में भीगने और अंग प्रदर्शन तक पहुँच गई। समझ नहीं आता कि इन महान लोगों की ऐसी तार्किक और क्रांतिकारी सोच 'छठ पूजा' दौरान ही क्यों उमड़-उमड़ कर बाहर आती है। कभी तो ये लगता है कि इन्हें भी पता है कि इनकी लोकप्रियता उसी क्षेत्र के लोगों से है जिन्हें ये अनपढ़, अंधविश्वासी और भी न जाने किस-किस उपमा से सम्बोधित करती रहती हैं, और इस क्षेत्र के लोग उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ते रहते हैं। यह सवाल भी मन में उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी 'बिहारी' ने इन्हें कुछ व्यक्तिगत क्षति पहुंचाई हो? जिस छठ को लेकर हर बार ये लोग हाय तौबा मचाते हैं, जिसके हर विधि-विधान पर इन्हें समस्या है, मुझे लगता है कि शायद इन्हें कभी मौक़ा नहीं मिला कि वे इसके साक्षी भी बने सकें, दूर-दूर से जो इन्होने देखा-समझा उसे ही सच समझ बैठे। यह तो एक महोत्सव है, भव्य महोत्सव , जिसमें समाज का हर वर्ग शामिल होता है। बड़ा से बड़ा तबका और छोटा से छोटा तबका सभी एक साथ एक जलाशय पर अर्घ्य देते हैं, हवन करते हैं, पर इसे वे क्या समझेंगे जो दिन रात बिहारियों को नीचा दिखाने का बहाना ढूंढते हों। जो दूर -दूर से हीं इस पर्व के साक्षी रहे हों, जो इस गुमान में जीते हों कि वे जो कहते हैं उससे ज़्यादा सही और सटीक तो कुछ हो ही नहीं सकता, वे भला इस पर्व की महत्ता को क्या समझेंगे, उन्हें तो झीनी साड़ी में बस स्त्री देह का दर्शन ही होगा। उन्हें अर्घ्य देते पुरुष नहीं दिखाई देंगे, भला क्यों दिखाई दें, इससे वे चर्चा में तो नहीं आ पाएंगे, सो स्त्रियां, दबी कुचली स्त्रियां, अंधविश्वासी स्त्रियां, नाक से सिन्दूर लगाती स्त्रियां, आँचल फैलाती स्त्रियां, भीगी हुई पतली सूती साड़ी में स्त्रियां... उनकी चर्चा यहीं तक सिमट कर रह जाती है।
जनाब कभी उस ऊर्जा को उनके बीच जाकर महसूस कीजिये।
जब सारे लोग मिलकर नगर की सफाई करते हैं, जलाशयों की सफाई करते हैं तो ज़रूर इसमें भी उनका अंधविश्वास और अनपढ़ होना ही होगा। जब हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी एकजूट होकर इस पर्व के लिए सहायता करते हैं संभव है उसके पीछे भी कारण अनपढ़ और अंधविश्वास ही हो, क्योंकि पढ़ा लिखा होना आप जैसे कुछ ख़ास लोगों तक ही सिमटा हुआ है।
सच कहूँ तो आप कभी समझ नहीं सकते कि किस कदर छठ हम सबके खून में है कि उस क्षेत्र के लोगों में से किसी के यहां हो या न हो सभी उस पर्व में भागीदार होते हैं। हमारे परिवार में भी छठ नहीं होता किन्तु यह कभी एहसास ही नहीं हुआ कि हम इसमें शामिल नहीं। बचपन में जब आस-पास छठ होते देखती तो हमारी भी ख्वाहिश होती थी हम भी उस त्यौहार का हिस्सा बनें। घर में इसे शुरू करने के लिए न जाने कितनी बार अम्मा(दादी) और मम्मी से ज़िद भी की, लेकिन हर बार जवाब 'ना' होता। अम्मा कहतीं हमारे परिवार में छठ नहीं सहाता है। हाँ प्रसाद के रूप में सूप चढाने के लिए पैसा ज़रूर दिया जाता था (हम भी इसी परम्परा का निर्वाह कर रहे)। अहाते में बड़ा वाला नीम्बू (घाघर) का पेड़ (तब भी था, और आज भी है ) वह छठ के समय फलों से लद जाता, जिसे छठ के लिए बाँट दिया जाता था (ये परम्परा आज भी जारी है)। मोहल्ले भर से खरना का प्रसाद इतना ज़्यादा आता कि खाना बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अर्घ्य देखने के लिए अक्सर हम किसी न किसी परिवार के साथ घाट पर जाया करते थे। शाम का अर्घ्य मायूसी दे जाता था तो वहीं सुबह की छटा ही निराली होती थी। अर्घ्य देते हुए अँधेरे से उजाले की ओर जाना मतलब 'पौ फटने से लेकर सुबह के निकलने' तक के सफर को देखना एक अलग अनुभूति दे जाता (था ) है । उसके बाद सम्पूर्ण जलाशय मन्त्रोच्चारण से गूँज उठता। मेरे पापा बताया करते थे कि एक समय था जब वह अपने दोस्तों के साथ पांच घाटों से प्रसाद मांगकर खाया करते थे। उनकी बातें इस तरह दिमाग में अंकित हुई कि मैंने भी एक साल यही किया। सच कहूँ तो यह भी बेहद कष्टदायक होता है, अपने ईगो को परे हटाकर प्रसाद मांगना। तब मुझे इसका एहसास हुआ था।
पिछले दो दिनों से लगभग सभी मुझे छठ की बधाईयाँ दे रहे साथ ही ये सवाल भी दाग रहे कि छठ की छुट्टी नहीं ली। सभी को मुस्कुराकर जवाब दे रही कि हमारे घर पर छठ नहीं होता। लोगों के लिए ये आश्चर्य का विषय है क्योंकि बिहार का अर्थ ही होता है छठ।
अंत में सिर्फ इतना कि जब आप किसी चीज़ के बारे में गहराई से नहीं जानते तो जबरन का तर्क और कुतर्क कर उसमें अपनी नाक घुसेड़कर अपनी पब्लिसिटी करने की क्या ज़रूरत है। आप ऐसे ही माननीय हैं।
जनाब कभी उस ऊर्जा को उनके बीच जाकर महसूस कीजिये।
जब सारे लोग मिलकर नगर की सफाई करते हैं, जलाशयों की सफाई करते हैं तो ज़रूर इसमें भी उनका अंधविश्वास और अनपढ़ होना ही होगा। जब हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी एकजूट होकर इस पर्व के लिए सहायता करते हैं संभव है उसके पीछे भी कारण अनपढ़ और अंधविश्वास ही हो, क्योंकि पढ़ा लिखा होना आप जैसे कुछ ख़ास लोगों तक ही सिमटा हुआ है।
सच कहूँ तो आप कभी समझ नहीं सकते कि किस कदर छठ हम सबके खून में है कि उस क्षेत्र के लोगों में से किसी के यहां हो या न हो सभी उस पर्व में भागीदार होते हैं। हमारे परिवार में भी छठ नहीं होता किन्तु यह कभी एहसास ही नहीं हुआ कि हम इसमें शामिल नहीं। बचपन में जब आस-पास छठ होते देखती तो हमारी भी ख्वाहिश होती थी हम भी उस त्यौहार का हिस्सा बनें। घर में इसे शुरू करने के लिए न जाने कितनी बार अम्मा(दादी) और मम्मी से ज़िद भी की, लेकिन हर बार जवाब 'ना' होता। अम्मा कहतीं हमारे परिवार में छठ नहीं सहाता है। हाँ प्रसाद के रूप में सूप चढाने के लिए पैसा ज़रूर दिया जाता था (हम भी इसी परम्परा का निर्वाह कर रहे)। अहाते में बड़ा वाला नीम्बू (घाघर) का पेड़ (तब भी था, और आज भी है ) वह छठ के समय फलों से लद जाता, जिसे छठ के लिए बाँट दिया जाता था (ये परम्परा आज भी जारी है)। मोहल्ले भर से खरना का प्रसाद इतना ज़्यादा आता कि खाना बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अर्घ्य देखने के लिए अक्सर हम किसी न किसी परिवार के साथ घाट पर जाया करते थे। शाम का अर्घ्य मायूसी दे जाता था तो वहीं सुबह की छटा ही निराली होती थी। अर्घ्य देते हुए अँधेरे से उजाले की ओर जाना मतलब 'पौ फटने से लेकर सुबह के निकलने' तक के सफर को देखना एक अलग अनुभूति दे जाता (था ) है । उसके बाद सम्पूर्ण जलाशय मन्त्रोच्चारण से गूँज उठता। मेरे पापा बताया करते थे कि एक समय था जब वह अपने दोस्तों के साथ पांच घाटों से प्रसाद मांगकर खाया करते थे। उनकी बातें इस तरह दिमाग में अंकित हुई कि मैंने भी एक साल यही किया। सच कहूँ तो यह भी बेहद कष्टदायक होता है, अपने ईगो को परे हटाकर प्रसाद मांगना। तब मुझे इसका एहसास हुआ था।
पिछले दो दिनों से लगभग सभी मुझे छठ की बधाईयाँ दे रहे साथ ही ये सवाल भी दाग रहे कि छठ की छुट्टी नहीं ली। सभी को मुस्कुराकर जवाब दे रही कि हमारे घर पर छठ नहीं होता। लोगों के लिए ये आश्चर्य का विषय है क्योंकि बिहार का अर्थ ही होता है छठ।
अंत में सिर्फ इतना कि जब आप किसी चीज़ के बारे में गहराई से नहीं जानते तो जबरन का तर्क और कुतर्क कर उसमें अपनी नाक घुसेड़कर अपनी पब्लिसिटी करने की क्या ज़रूरत है। आप ऐसे ही माननीय हैं।
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