आज शिक्षक दिवस पर विद्यालय और शिक्षकों के बारे में दोस्तों से बातें करते हुए कब बचपन में पहुँच गयी पता ही नही चला। हम सभी बारी बारी से अपने शिक्षकों को याद कर रहे थे स्मृति में गोते लगाते हुए कब 'हंसा' सर पर ध्यान केंद्रित हो गया ध्यान ही नहीं रहा। 'हंसा सर' पुकार का नाम था, वैसे तो उनका नाम 'हंसराज महाराज' था, पर हम सब उन्हें हंसा सर ही बोलते थे। हमलोगों को वे 'कत्थक' सिखाते थे। हमेशा उन्हें झक सफ़ेद कुरता और चौड़े पाँयचे वाला पैजामा पहने ही देखा। मुंह में पान की छोटी सी गिलौरी दवबाए, बोली में अवधी की मीठास घुली रहती। केजी में रहे होंगे या उससे थोड़े बड़े जब 'कत्थक' सीखना शुरू किये थे। घुंघरू गूँथने से लेकर बाँधने तक का सलीका उन्होंने सिखाया। मैं और मेरी बड़ी बहन दोनों साथ जाते। वैसे भी जहां दीदी जाती मुझे भी वहीँ जाना था । हंसा सर लखनऊ से लेकर बनारस घराने तक की खासियत बताया करते थे। दीदी तो सब सीख लेती, मैं पिछड़ जाती, और फिर हंसा सर पीठ पर धम धम धौल जमा देते...बहुत गुस्सा आता था, लगता था मुझे तो नापसंद करते हैं।
एक बार वे हमारे घर आए। मम्मी उनसे हमदोनों बहनों की प्रगति पूछने लगीं। मैं पास के कमरे में थी तो कान खड़ा होना स्वाभाविक था।वो बोले "बड़की तो बिजली है, नाचती है तो मन खुश हो जाता है, उसको सरस्वती जी का आशीर्वाद है।" मम्मी पूछीं और छोटकी, वो हँसते हुए बोले "अभी छोटी है, धीरे धीरे सीख जाएगी।" सर को उम्मीद थी कि मैं सीख जाऊँगी, सीख भी ली, पर सम पर आना आज तक नहीँ सीख पायी।
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