मेट्रो में सफर करते हुए हर रोज़ एक अलग ही अनुभव होता है, लेकिन इन दो दिनों में कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।
घटना १ (सामान्य डब्बा)
कल सुबह ऑफिस आते हुए मेट्रो में बहुत भीड़ थी (जो अक्सर होती है ) . मैं कोने में बुज़ुर्गों के लिए आरक्षित सीट के पास खड़ी हो गयी। वहीं सीट पर एक बुज़ुर्ग बैठे सुडोकु खेल रहे थे, उन्होंने मेरे थैले को अपनी गोद में रख लिया, मुझे थोड़ा अजीब लग रहा था इसलिए मैंने मना भी किया लेकिन वो रख कर फिर से सुडोकु में व्यस्त हो गए। मंडी हाउस पर उतरते वक़्त मैंने उन्हें धन्यवाद कहा।
घटना २ (महिला डब्बा )
शाम के समय भी मेट्रो में कुछ ज़्यादा ही भीड़ थी। दो मेट्रो के बाद तीसरी के महिला कोच में थोड़ी जगह मिल पायी। यमुना बैंक स्टेशन पर मेट्रो के रुकते ही भीड़ का सैलाब जिस तरह धक्का देते हुए अंदर घुसा, वो डरावना था। अंदर एक महिला अपने बच्चे के साथ बाहर निकलने के लिए गुहार लगा रही थी, लेकिन किसी लड़की/महिला ने उसे बाहर निकालने की पहल नहीं की उलटा वो उससे उलझ पड़ी और उलटी सीधी बातें करने लगें। वो महिला दरवाज़े के पास से भीड़ के धक्के की वजह से बिलकुल अंदर दरवाज़े के पास पहुँच गयी। वो चिल्ला रही थी "मुझे उतरने दो, मुझे उतरने दो।" और लड़कियां खिलखिला रही थीं। वो बोल रही थी "ये क्राइम है मुझे वैशाली नहीं जाना और आप सब जबरदस्ती मुझे वैशाली ले जा रही हैं। " भीड़ बोल रही थी उतरना था तो गेट के पास रहना था, वो सफाई दे रही थी कि मैं गेट पर ही थी तुमलोगों ने मुझे उतरने नहीं दिया। बच्चा जोर जोर से रो रहा था। मैं ऐसी जगह थी कि सिर्फ देख सकती थी, कोई सहायता नहीं कर सकती थी।
घटना ३ ( सामान्य डब्बा )
ऑफिस आते हुए भीड़ भरे डब्बे में चढ़ी। मेरी परेशानियों को भांपते हुए एक युवक ने अपनी सीट छोड़ कर बैठने का इशारा किया।
ऐसा तो नहीं धीरे धीरे 'हम', यानि महिलाएं/ लडकियां/ समूची स्त्री जाति अपने अंदर की संवेदनशीलता खोते जा रहे हैं ??
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