अब तक गूँज रही है कानों में वो अधफँसी आवाज़ जो मनाया करती थी उत्सव अपने वजूद का । अधफँसी आवाज़ गुनगुनाती थी ज़िन्दगी के गीत, वो जीना चाहती थी, हाँ, वो जीना चाहती थी, तोड़कर, मौत के सारे चक्रव्यूह। लड़ती रही थी ताजिंदगी ज़िन्दगी की व्यूह रचनाओं से जानती थी जुगत उनसे निकल पाने की । उस रात अँधेरा घना था औघड़ ने ऐसा व्यूह रचा अंतिम चक्र में फँस कर रह गई अभिमन्यु की तरह वो आवाज़ खामोश हो गई सदा के लिए !! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना झूठ बोलता ही नहीं ---- ‘नूर’