पुरानी डायरियों के पन्ने पलटते हुए अक्सर कई -कई घटनाएं ज़ेहन में ताज़ा हो जाती हैं। कल ऐसे ही पुराने दिनों को याद कर रही थी, पन्ने पलटते हुए कॉलेज के दिनों की यादों में खो गयी। तब की कुछ घटनाओं का ज़िक्र था उसमें।
उन दिनों दसवीं बोर्ड देने के बाद इंटर के लिए कॉलेज में ही नामांकन लेना होता था। हमारे आरा में बमुश्किल एक या दो विद्यालय ही ऐसे थे जहां इंटर की पढ़ाई की सुविधा थी। इंटर में नामांकन लेने के लिए भी हमारे लिए सबसे उपयुक्त 'महाराजा कॉलेज' ही था, इसका सबसे आसान कारण था, उसका एक गेट हमारे मोहल्ले में खुलता था , यानि घर के बिलकुल पास। मेरे घर की छत से तो उस कॉलेज का मैदान भी नज़र आता था। सहशिक्षा वाला कॉलेज था। लड़के और लडकियां साथ पढ़ते थे, वैसे कहने को साथ थे, लड़कियों के लिए कक्षा में आगे की तीन बेंच आरक्षित रहती थी उसके पीछे की बेंच खाली, फिर लड़के बैठते थे। क्लास भी हमेशा नहीं चला करती, लड़कियों को तो ये भी सुविधा थी कि जिस रोज़ क्लास चलने वाला हो लड़के बता कर जाते थे। जबतक प्रोफेसर क्लास में ना जाएँ लड़कियों को जाने की अनुमति नहीं थी। शिक्षक के साथ साथ या यूँ कह लें पीछे पीछे हम लडकियां होते थे, यानि लड़के -लड़कियों के बीच के फर्क को समझाया जाने लगा था। हम लड़कियों को लड़कों से डरना चाहिए ये भी सिखाया जाने लगा था, हालांकि मुझे तो बचपन में ही पापा ने किसी से भी नहीं डरने की शिक्षा दी थी, जब पहली बार राह चलते मुझपर कमेंट हुआ था और मैं दुखी होकर पापा से साझा की थी तो पापा ने यही कहा था कि " हाथी चले बाज़ार कुत्ता भूके हज़ार" इसलिए इनकी कोई अहमियत नहीं, अपना काम करो। बस तब से ना तो मुझे किसी से कभी डर लगा और ना मैं कभी किसी की बकवास टिप्पणियों से परेशान हुई, लेकिन कॉलेज में तो उलट बातें सिखाई जा रही थी, जैसे कि सहपाठी दोस्त ना होकर भूत हों।
मैं बड़ी असमंजस में रहती जैसे वे छात्र वैसे हम फिर उन्हें कक्षा में जाने की अनुमति हमें क्यों नहीं ? लड़कियों का कॉमन रूम प्राचार्य के कार्यालय के बगल में था , यानि लडकियां हर पल निगरानी में रहती थीं। आज भी उस निगरानी को याद कर गुस्सा आ जाता है।
कॉलेज में पहले ही दिन बता दिया गया था कि लड़कियों का ड्रेस कोड सलवार, कुर्ता और दुपट्टा है। बस समस्या यही से शुरू हुई थी। मुझे हमेशा से ही दुपट्टा एक बोझ लगा है, मुझे आज भी उसे सही तरीके से लेने का सलीका नहीं आया है। अगर मैं उसे ले लूँ तो खुद बेतरतीब हो जाती हूँ। जब तक की ड्रेस की डिमांड ना हो मैं इससे परहेज ही करती हूँ।
लड़कियों के लिए ये नियम था, जिसका पालन सभी मनोयोग से करती थीं । लड़कों के लिए ऐसा कोई नियम था मुझे याद नहीं। उनके लिए बस एक ही नियम था लड़कियों के कॉमन रूम में नहीं जाना, जिसे तोड़ने में उन्हें कभी कभी कामयाबी मिल जाती थी।
मम्मी अपने हाथों से मेरे लिए एक कुर्ता सिली थीं। हरे रंग का बैगी बाहों वाला, जिस पर सिलाई की और भी कारीगरी थी। ढीला ढाला, बेहद आरामदायक , बहुत ही प्यारा सा कुर्ता था। मैं उसे पहन कर, बिना दुपट्टे के कॉलेज चली गयी। उस दिन मेरी इस हिमाकत के लिए ना तो किसी शिक्षक ने टोका ना प्राचार्य ने लेकिन हमारी सहपाठी लड़कियों में से कुछ की त्योरियां चढ़ गयी,वे पीठ पीछे मेरी दोस्तों से बोलने लगी, उन्होंने आकर मुझे बताया। मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो। धीरे धीरे मेरी दोस्तों के साथ ही अन्य सहपाठी लडकियां मुझे समझाने लगीं, मैं अड़ी हुयी थी, लेकिन अंततः हार मान ली और क्लास ख़त्म होने के साथ ही मैं घर गयी और दुपट्टा लेकर आयी।
कल इसे पढ़कर महिलाओं / लड़कियों के मनोविज्ञान पर देर तक सोचती रही - और हंसती रही।
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
उन दिनों दसवीं बोर्ड देने के बाद इंटर के लिए कॉलेज में ही नामांकन लेना होता था। हमारे आरा में बमुश्किल एक या दो विद्यालय ही ऐसे थे जहां इंटर की पढ़ाई की सुविधा थी। इंटर में नामांकन लेने के लिए भी हमारे लिए सबसे उपयुक्त 'महाराजा कॉलेज' ही था, इसका सबसे आसान कारण था, उसका एक गेट हमारे मोहल्ले में खुलता था , यानि घर के बिलकुल पास। मेरे घर की छत से तो उस कॉलेज का मैदान भी नज़र आता था। सहशिक्षा वाला कॉलेज था। लड़के और लडकियां साथ पढ़ते थे, वैसे कहने को साथ थे, लड़कियों के लिए कक्षा में आगे की तीन बेंच आरक्षित रहती थी उसके पीछे की बेंच खाली, फिर लड़के बैठते थे। क्लास भी हमेशा नहीं चला करती, लड़कियों को तो ये भी सुविधा थी कि जिस रोज़ क्लास चलने वाला हो लड़के बता कर जाते थे। जबतक प्रोफेसर क्लास में ना जाएँ लड़कियों को जाने की अनुमति नहीं थी। शिक्षक के साथ साथ या यूँ कह लें पीछे पीछे हम लडकियां होते थे, यानि लड़के -लड़कियों के बीच के फर्क को समझाया जाने लगा था। हम लड़कियों को लड़कों से डरना चाहिए ये भी सिखाया जाने लगा था, हालांकि मुझे तो बचपन में ही पापा ने किसी से भी नहीं डरने की शिक्षा दी थी, जब पहली बार राह चलते मुझपर कमेंट हुआ था और मैं दुखी होकर पापा से साझा की थी तो पापा ने यही कहा था कि " हाथी चले बाज़ार कुत्ता भूके हज़ार" इसलिए इनकी कोई अहमियत नहीं, अपना काम करो। बस तब से ना तो मुझे किसी से कभी डर लगा और ना मैं कभी किसी की बकवास टिप्पणियों से परेशान हुई, लेकिन कॉलेज में तो उलट बातें सिखाई जा रही थी, जैसे कि सहपाठी दोस्त ना होकर भूत हों।
मैं बड़ी असमंजस में रहती जैसे वे छात्र वैसे हम फिर उन्हें कक्षा में जाने की अनुमति हमें क्यों नहीं ? लड़कियों का कॉमन रूम प्राचार्य के कार्यालय के बगल में था , यानि लडकियां हर पल निगरानी में रहती थीं। आज भी उस निगरानी को याद कर गुस्सा आ जाता है।
कॉलेज में पहले ही दिन बता दिया गया था कि लड़कियों का ड्रेस कोड सलवार, कुर्ता और दुपट्टा है। बस समस्या यही से शुरू हुई थी। मुझे हमेशा से ही दुपट्टा एक बोझ लगा है, मुझे आज भी उसे सही तरीके से लेने का सलीका नहीं आया है। अगर मैं उसे ले लूँ तो खुद बेतरतीब हो जाती हूँ। जब तक की ड्रेस की डिमांड ना हो मैं इससे परहेज ही करती हूँ।
लड़कियों के लिए ये नियम था, जिसका पालन सभी मनोयोग से करती थीं । लड़कों के लिए ऐसा कोई नियम था मुझे याद नहीं। उनके लिए बस एक ही नियम था लड़कियों के कॉमन रूम में नहीं जाना, जिसे तोड़ने में उन्हें कभी कभी कामयाबी मिल जाती थी।
मम्मी अपने हाथों से मेरे लिए एक कुर्ता सिली थीं। हरे रंग का बैगी बाहों वाला, जिस पर सिलाई की और भी कारीगरी थी। ढीला ढाला, बेहद आरामदायक , बहुत ही प्यारा सा कुर्ता था। मैं उसे पहन कर, बिना दुपट्टे के कॉलेज चली गयी। उस दिन मेरी इस हिमाकत के लिए ना तो किसी शिक्षक ने टोका ना प्राचार्य ने लेकिन हमारी सहपाठी लड़कियों में से कुछ की त्योरियां चढ़ गयी,वे पीठ पीछे मेरी दोस्तों से बोलने लगी, उन्होंने आकर मुझे बताया। मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो। धीरे धीरे मेरी दोस्तों के साथ ही अन्य सहपाठी लडकियां मुझे समझाने लगीं, मैं अड़ी हुयी थी, लेकिन अंततः हार मान ली और क्लास ख़त्म होने के साथ ही मैं घर गयी और दुपट्टा लेकर आयी।
कल इसे पढ़कर महिलाओं / लड़कियों के मनोविज्ञान पर देर तक सोचती रही - और हंसती रही।
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