दिल्ली का घर... बिल्कुल छोटा सा... तीन कमरे का फ्लैट । कहते हैं की दिल्ली के फ्लेट्स में अगर सूरज की रोशनी पहुँच जाए तो ये बड़े सौभाग्य की बात है। कुछ ऐसा ही सौभाग्य हमें प्राप्त है। जी हाँ वैसे तो हम तीन कमरे और एक बड़े से हॉल वाले फ्लैट में रहते हैं ...लेकिन वास्तव में छोटे से क्षेत्र में ही ये चारो कमरे, रसोईघर सिमटा पड़ा है। बेडरूम से सटे एक छोटी सी बालकनी भी है जहाँ जाकर ये अहसास होता है की फ्लैट बनाने वाले ने कितना दिमाग लगाया होगा हर छोटे बड़े कोने का इस्तेमाल करने में। कहाँ हमारे आरा का घर जहाँ बालकनी में हमलोगों ने कितनी बार छुआ छुई खेली, यही नही मैंने तो वहां ढेर सारे गमले लगा रखे थे। गर्मी के दिनों में हम सब भाई बहन बालकनी में आराम से सकते थे इतनी जगह वहां थी। यहाँ... दिल्ली के घर में अगर तीन लोग खड़े हो जाएँ तो ऐसा लगता है की कितनी भीड़ हो गई ... अब चौथे के लिए जगह ही नही है।
खैर... इन सब के बावजूद हम ख़ुद को बेहद सौभाग्यशाली मानते है क्योंकि ये घर काफ़ी खुला हुआ सा है। दिन चढ़ते ही सूरज की रोशनी से हमारी नींद खुलती है। दूसरा कमरा, वो भी बालकनी से ही सटा है, बहुत से जीवों की शरनस्थलि बना हुआ है। उस कमरे में अलमारी के ऊपर कबूतरों ने अपना घोसला बना रखा है और खिड़की पर एक प्यारी सी गिलहरी (जिसे हम गिल्लू कह सकते हैं ) का घर है। खिड़की पर घर होने के बावजूद गिल्लू सारे घर में दौड़ती रहती है। हाँ ...ये गिल्लू, महादेवी वर्मा की गिल्लू से थोडी अलग है। महादेवी वर्मा की गिल्लू के बारे में जब मैं स्कूल में थी तब पढ़ी थी... दिल को छो जाने वाली कहानी। पर मेरी गिल्लू॥बड़ी ही नटखट है... हमेशा शैतानी करती रहती है । जब मैंने पहली बार उसे देखा तो मेरी इच्छा हुई की मैं उसकी हरकतें देखू ... कभी कबूतरों से लड़ाई , तो कभी खिड़की से किचन में आकर खाने की चीजें गिरा देना... कभी हममें से किसी को सोते हुए में ही पैरों की उँगलियों को कुतर कर जगा देना... दिन भर उसका यही काम होता है। आज सुबह ही कबूतर और गिल्लू में लड़ाई हो गयी। गिल्लू उसके घोसले में पहुँच गई और चादर के निचे छिप गई , कबूतर अपने चोंच से उसे मार रहा था और गिल्लू बार बार छिप जा रही थी। मैं उनकी लड़ाई को देखकर मजा लूट रही थी। ये शायद पहली ऐसी लड़ाई थी जिसे देखकर मुझे बहुत मजा आ रहा था।
खैर... इन सब के बावजूद हम ख़ुद को बेहद सौभाग्यशाली मानते है क्योंकि ये घर काफ़ी खुला हुआ सा है। दिन चढ़ते ही सूरज की रोशनी से हमारी नींद खुलती है। दूसरा कमरा, वो भी बालकनी से ही सटा है, बहुत से जीवों की शरनस्थलि बना हुआ है। उस कमरे में अलमारी के ऊपर कबूतरों ने अपना घोसला बना रखा है और खिड़की पर एक प्यारी सी गिलहरी (जिसे हम गिल्लू कह सकते हैं ) का घर है। खिड़की पर घर होने के बावजूद गिल्लू सारे घर में दौड़ती रहती है। हाँ ...ये गिल्लू, महादेवी वर्मा की गिल्लू से थोडी अलग है। महादेवी वर्मा की गिल्लू के बारे में जब मैं स्कूल में थी तब पढ़ी थी... दिल को छो जाने वाली कहानी। पर मेरी गिल्लू॥बड़ी ही नटखट है... हमेशा शैतानी करती रहती है । जब मैंने पहली बार उसे देखा तो मेरी इच्छा हुई की मैं उसकी हरकतें देखू ... कभी कबूतरों से लड़ाई , तो कभी खिड़की से किचन में आकर खाने की चीजें गिरा देना... कभी हममें से किसी को सोते हुए में ही पैरों की उँगलियों को कुतर कर जगा देना... दिन भर उसका यही काम होता है। आज सुबह ही कबूतर और गिल्लू में लड़ाई हो गयी। गिल्लू उसके घोसले में पहुँच गई और चादर के निचे छिप गई , कबूतर अपने चोंच से उसे मार रहा था और गिल्लू बार बार छिप जा रही थी। मैं उनकी लड़ाई को देखकर मजा लूट रही थी। ये शायद पहली ऐसी लड़ाई थी जिसे देखकर मुझे बहुत मजा आ रहा था।
Comments
इन मासूम छोटे-छोटे जीवों की भी एक अपनी दुनिया होती है...
मीत
मेरी रचनाएँ !!!!!!!!!