होली बीत गयी। घर गई थी वापस आ गई, वो भी बड़े ही बेमन से। छुट्टी से वापस आने के बाद अक्सर ये महसूस होता है कि ये छुट्टियाँ इतनी छोटी क्यों होती हैं। जो नहीं होता उसकी चाहत होती है और जो होता है वो हमेशा कम क्यों लगता है? आरा से आते समय ट्रेन में काफ़ी भीड़ थी। सभी हमारी तरह अपने अपने घरों से होली मना कर अपने अपने कार्यक्षेत्र को लौट रहे थे, या दूसरे शब्दों में सभी प्रवासी दिल्ली वापस लौट रहे थे । भीड़ इतनी ज़्यादा कि अरक्षित सीट वाले भी बेचारे सिकुडे से बैठे थे, और जिनका टिकट कन्फर्म नही हुआ था वे टी टी के आगे पीछे भाग रहे थे और टी टी, हाँ , ऐसे समय में तो इनकी लौटरी ही खुल जाती है। वो आगे आगे और लोग उनके पीछे -पीछे... कभी लोगों को समझाते हुए तो कभी उन्हें झिड़कते हुए " अगर इतना लंबा सफर और ऐसे समय में करना था तो रिजर्वेशन पहले से क्यों नहीं लिया, "। बेचारे लोग सारी बातों को सुनकर भी उसके पीछे लगे थे की शायद उनपर तरस खाकर इतना सब सुनने के बाद उन्हें एक सीट मिल ही जाए।
वे लोग जिनके पास बर्थ नही था उनके पास तीन ऑप्शन्स थे (... और होंगे तो मुझे नही पता ) पहला की वो बर्थ के निचे अखबार बिछा कर अपनी सीट बना ले, दूसरा की वे बाथरूम के बगल वाली खाली जगह पर अपना कब्ज़ा जमा लें या फ़िर तीसरा की बैठे बैठे ही उन्घकर अपनी नींद पुरी कर लें।
इनलोगों की भीड़ को देखकर मैं ख़ुद को भाग्यशाली समझ रही थी की कम से कम हमारे पास तीन सीट्स तो हैं .
वे लोग जिनके पास बर्थ नही था उनके पास तीन ऑप्शन्स थे (... और होंगे तो मुझे नही पता ) पहला की वो बर्थ के निचे अखबार बिछा कर अपनी सीट बना ले, दूसरा की वे बाथरूम के बगल वाली खाली जगह पर अपना कब्ज़ा जमा लें या फ़िर तीसरा की बैठे बैठे ही उन्घकर अपनी नींद पुरी कर लें।
इनलोगों की भीड़ को देखकर मैं ख़ुद को भाग्यशाली समझ रही थी की कम से कम हमारे पास तीन सीट्स तो हैं .
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