Skip to main content

...जो छूट गया वह कहाँ मिले?



माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को बसंत पंचमी कहते हैं।  इस दिन माता सरस्वती की पूजा की जाती है। सरस्वती पूजा के साथ ही शुरू हो जाता है मादक बसंत। जाड़े का मौसम विदा लेता है गर्मी दस्तक देती है।  पुराने पत्ते गिरते हैं और नए पत्तों से पेड़-पौधे सज जाते हैं। हर तरफ रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू तैर रही होती है ये मौसम होता है रंगों का। फूलों पर मंडराती रंग बिरंगी तितलियाँ और गुनगुनाते भँवरे इस मौसम में यदा-कदा  दिख जाते हैं। राग बहार भी तो इसी मौसम का राग है "कलियन संग करता रंगरलियाँ, भंवर गुंजाए फुले फुलवारी।"
यह मौसम सृजन का मौसम होता है, कला का मौसम होता है। शायद यही वजह रही होगी जो कला की अधिष्ठात्री देवी की पूजा भी इसी मौसम में की जाती है। जाड़े के अवसादपूर्ण मौसम के बाद बसंत का उल्लास  सम्पूर्ण जीवों में आनंद भर देता है। कोयल पंचम सुर में गीत सुनाने लगती है।
बचपन से ही मुझे बसंत का मौसम बेहद प्रिय रहा है। न तो ज़्यादा ठण्ड होती है और न ही उमस वाली गर्मी । आम के पेड़ों पर मोजर (मंजरी) लगने लगता है। ज्यादातर फूलों के खिलने का मौसम यही होता है।
एक समय था जब आरा में हमारे घर के अहाते में घाघर नींबू का पेड़ हुआ करता था। इस मौसम में छोटे-छोटे सफ़ेद फूलों से वह भर जाता। उसकी खुशबू में से मन तृप्त हो जाया करता था। जब हम अपने कमरे की खिड़कियाँ खोलते थे। उन फूलों की खुशबू पूरे कमरे में भर जाती थी। वो ऐसी खुशबू थी जिसे आज तक नहीं भूल सकी हूँ। ऐसा लगता था कि किसी रूहानी दुनिया का सुख मिल गया हो। हो सकता है यही कारण रहा हो... यही वो अनुभव हो जिससे प्यार का पर्व भी इसी मौसम में आता है।
बसंत पंचमी के साथ ही फागुन की धमक शुरू हो जाती है। सरस्वती पूजा में अबीर भी तो चढ़ाते हैं।  गांवों में बसंत के साथ ही होली की शुरुआत हो जाती है। बड़े-छोटे का भेद भूल सभी मौज में होते हैं। कबीर दास कहते हैं -'साहब सेवक एक संग, खेले सदा बसंत।' जगह-जगह फगुआ गवाना शुरू हो जाता  है। "अउर महिनवा में बरसे ना बरसे फगुनवा में रस रची रची बरसे।" प्रकृति और मन सब इस रंग में रंग जाते हैं
हालांकि मुझे ख़ास देहात के फगुआ का कभी मजा तो नहीं मिला लेकिन लोगों से सुनकर उसके आनंद को मैंने महसूस ज़रूर किया है। जैसे मौसम में बसंत प्रिय है, वैसे ही त्योहारों में होली  बेहद पसंद है। होली की मस्ती ... होली का हंगामा दिल में हलचल मचा देता है।  रंग लगवाने को लेकर पहले ना ...ना ...ना, फ़िर हाँ ...हाँ ...उफ़ बचपन की मस्ती ऐसी ही होती थी, उसकी बात ही कुछ और थी। इस मौसम में अक्सर बहुरुपिया भी आते थे, कभी पोस्टमैन बन कर, तो कभी काली माई बनकर... और हम अक्सर बेवकूफ भी बन जाया करते थे। यही कुछ यादें है जो आज भी मुझे उन दिनों को ज़ेहन से निकालने की इच्छा नहीं होती, उन्हें हमेशा ज़िंदा रखने की इच्छा होती है। हाँ वो निश्चिन्तता... वो अल्हड़पन... वो समय अब नहीं रहा ... वैसे हम भी तो नहीं रहे !
  

Comments

Anonymous said…
मुझे रंगो से एलर्जी है इसलिये होली नहीं भाती।
Vinay said…
बहुत आकर्षक है लेखनी !
holi aane me abhi vakhat hai...lekin apne to abhi se hi blog ko holimay kar diya hai...


ashish maharishi
Bandmru said…
pariwartan sansar ka niyam hai...... wo yaden hai... aur rahengi.... isi men khush hona hai..... waise aachchha likha hai aapne......holi haiiiiii.
Udan Tashtari said…
वो समय अब ना रहा ...
बहुत सुंदर ढंग से अपने बचपन के बारे में लिखा है....
pallavi trivedi said…
मुझे याद है हमारे स्कूल में बसंत पंचमी को सब पीले कपडे पहनकर आते थे और केसर वाला भात भी बनता था....अब तो सचमुच जमाना बीत गया!

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब...

ये हौसला…

उ स दिन गार्गी उदास सी घर के कामों में उलझी थी।  उसकी उदासी को समझ पाना बहुत ही आसान था, क्योंकि जब वो खुश - प्रफुल्लित रहती है, या तो कोई प्यारा सा बांग्ला गीत गुनगुनाती रहेगी या फिर यहां की बातें - वहाँ की बातें बांग्ला मिक्स टूटी फूटी हिन्दी में बताती रहेगी, जिसमें अक्सर लिंग भेद की त्रुटियाँ भी होती थीं, हालांकि करीब  चार - पांच  सालों के हमारे साथ ने उसकी हिंदी में काफी सुधार ला दिया था। अपने नाम के बिलकुल उलट - निरक्षर, अव्वल दर्जे की नासमझ, जिसे कोई भी चकमा दे जाता, रोज़ बेवक़ूफ़ बनती। मज़ाक  करते हुए मै अक्सर उससे पूछा करती कि आखिर तुम्हारा नाम गार्गी किसने रख दिया, पता है गार्गी कितनी पढ़ी लिखी विदुषी महिला का नाम था, वो मेरी बातें सुनती और हंसती…हाँ लेकिन वो बंगाली खूबसूरती से भरी पूरी थी, दुबली पतली सी…बड़ी बड़ी आँखों वाली । अक्सर अपनी बातें मुझसे साझा करती थी -  चाहे तकलीफ - परेशानियां हो या फिर कोई खुशी की बात, यहां तक कि अगर किसी ने उसके मेहनताने की रकम भी बढ़ाई तो भी बेहद खुश होकर बताएगी। कभी किसी की बुराई करते करते नाराज़ हो जाएगी तो ...

चिड़ियाँ

शाम हो चली थी।  सारे बच्चे छत पर उधम मचा रहे थे।  उनकी धमा चौकड़ी की आवाज़ से बिट्टी का  पढ़ाई से ध्यान बार बार उचट रहा था, लेकिन फिर पापा की घूरती आँखें, उसके ध्यान को वापिस ७ के पहाड़ा पर टिका दे रही थी । अब वो ज़ोर ज़ोर से पहाड़ा याद कर रही थी "सात एकम सात, सात दूनी चाॉदह"  तभी आवाज़ आई "हमार चिरैयाँ बोलेला बउवा के मनवा डोलेला" बिट्टी अपने पिता की ओर देखी, उनका ध्यान कहीं और था।  वह तुरंत खिड़की पर पहुँच कर नीचे झाँकने लगी। मोम से बनी रंग बिरंगी छोटी छोटी चिड़ियाँ ।  उसकी इच्छा हुई की बस अभी सब में प्राण आ जाए और सब सचमुच की चिड़ियाँ बन जाए ।  वो मोम की चिड़ियों की सुंदरता में डूबी हुई थी ।  तभी नीचे से चिड़िया वाले ने पूछा - "का बबी चिरैयाँ चाहीं का, आठ आना में एगो। " बिट्टी ने ना में सर हिलाया ।  फेरी वाले ने पुचकारते हुए कहा " जाए द आठ आना में तू दुगो ले लिहा।" बिट्टी फिर ना में सर हिला कर वापिस पिता के पास ...