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दिल्ली ... ऐसा शहर जहाँ सभी भाग रहे हैं. कोई काम के लिए भाग रहा है तो कोई काम खोजने के लिए भाग रहा है। घर के लिए समय नही, अपनों के लिए समय नही। ऐसा लगता है कि सारे रिश्ते यहाँ आकर छूटते चले जाते है। भावनाओ में बहने का भी समय नही। कभी चाही थी ऐसी ही जिन्दगी, पर अब ऐसा लग रहा है जैसे ऐसी जिन्दगी से तो मेरे आरा कि जिन्दगी ही भली थी । कम से कम वहाँ अपनों के लिए समय तो था। ज़रुरात्मंदो कि सहायता तो कर सकती थी।

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हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब...

तिनका तिनका तिहाड़ : सबकी अलग कहानी

ति हाड़ कि महिला कैदियों द्वारा लिखी कविताओं का संकलन 'तिनका तिनका तिहाड़'  पढने का मौका मिला. उनकी कविताओं से याद आया मुझे वो दिन जब एक कार्यक्रम के शूट के लिए तिहाड़ में बंद महिलाओं से मिलने का मौका मिला था. तब तक जेल को मैंने या तो कल्पनाओं में देखा था या फिर फिल्मों में. पहली बार तिहाड़ के अन्दर जाते हुए एक अजीब सी सिहरन हुयी थी. वहाँ बंद महिला कैदियों से जब बातें हुई तो उनका दर्द हमें भी दुखी कर गया. उनकी बातों से एहसास हुआ कि अपनों से दूर् होने कि चुभन.... ज़िंदगी को एक चहारदिवारी के भीतर समेट लेने कि घुटन क्या होती है...और कैसे एक घटना ( दुर्घटना कहना ज़्यादा उचित होगा ) किसी कि पूरी ज़िंदगी बदल देती है. वहाँ ज्यादातर ऐसी मिली जो कहना बहुत कुछ चाहती थी पर कुछ भी कह नही पा रही थी... सिर्फ़ उनकी आँखें सजल हो जा रही थी.  और कुछ ऐसी भी मिली जो वहाँ के माहौल से पुरी तरह जुड़ गयी थी... अब सलाखों से कोई फर्क नही पड़ता था... वही उनकी दुनिया थी. कु छ वैसा ही उनकी कविताएँ पढ़ते हुए मैंने महसूस किया. एक कसमसाहट है उनकी कविताओं में...किसी कि दुधमुँही बेटी को माँ के ...

ये हौसला…

उ स दिन गार्गी उदास सी घर के कामों में उलझी थी।  उसकी उदासी को समझ पाना बहुत ही आसान था, क्योंकि जब वो खुश - प्रफुल्लित रहती है, या तो कोई प्यारा सा बांग्ला गीत गुनगुनाती रहेगी या फिर यहां की बातें - वहाँ की बातें बांग्ला मिक्स टूटी फूटी हिन्दी में बताती रहेगी, जिसमें अक्सर लिंग भेद की त्रुटियाँ भी होती थीं, हालांकि करीब  चार - पांच  सालों के हमारे साथ ने उसकी हिंदी में काफी सुधार ला दिया था। अपने नाम के बिलकुल उलट - निरक्षर, अव्वल दर्जे की नासमझ, जिसे कोई भी चकमा दे जाता, रोज़ बेवक़ूफ़ बनती। मज़ाक  करते हुए मै अक्सर उससे पूछा करती कि आखिर तुम्हारा नाम गार्गी किसने रख दिया, पता है गार्गी कितनी पढ़ी लिखी विदुषी महिला का नाम था, वो मेरी बातें सुनती और हंसती…हाँ लेकिन वो बंगाली खूबसूरती से भरी पूरी थी, दुबली पतली सी…बड़ी बड़ी आँखों वाली । अक्सर अपनी बातें मुझसे साझा करती थी -  चाहे तकलीफ - परेशानियां हो या फिर कोई खुशी की बात, यहां तक कि अगर किसी ने उसके मेहनताने की रकम भी बढ़ाई तो भी बेहद खुश होकर बताएगी। कभी किसी की बुराई करते करते नाराज़ हो जाएगी तो ...