"परी ने जैसे ही छड़ी घुमाई कद्दू रथ बन गया। छोटे- छोटे चूहे रथ के घोड़े बन गए। परी ने छड़ी घुमाई और सिंड्रेला की फटी पुरानी ड्रेस सुंदर, राजकुमारियों के गाऊन जैसी हो गई। देखते ही देखते सुंदर चमचमाती चांदी की जूतियां सिंड्रेला के पैरों में थीं। सिंड्रेला खुशी से नाच उठी।"
"मम्मा परी कैसी होती है?"
"परी…उम्म... बिल्कुल तुम्हारी तरह"
"नो मम्मा परी आपकी तरह होती है। मेरी तरह तो सिंड्रेला…। मम्मा आगे की कहानी बताओ न?" पायल ने बिन्नी के माथे पर हाथ फेरते हुए पूछा "क्यों मैं कैसे परी हुई ?" " पलक झपकते आप मेरी हर विश पूरी नहीं करतीं?" पायल हंसते हुए उसे गुदगुदी लगाने लगी। दोनों खिलखिलाने लगीं। बिन्नी एक साल की भी नही थी जब प्रेम की मौत हो गई थी। बिन्नी प्रेम की इकलौती निशानी थी। उसकी तोतली बोली पायल की ज़िन्दगी से सारी कड़वाहट मिटाकर मिठास घोल जाती। उसकी हँसी अँधेरे जीवन में उजास भर जाती। कभी वह उदास होती बिन्नी अपनी नन्ही हथेलियों से उसका माथा सहलाने लगती और सच में उसकी सारी थकावट, सारी उदासी उड़न-छू हो जाती। वह घंटो टकटकी लगाए बिन्नी को निहारती रहती। उसकी आँखें बिलकुल प्रेम जैसी थीं। वैसी ही चमक… गहरी भूरी, एकदम हंसती हुई सी, जिसे देखकर वह अपने सारे दुख, सारी परेशानी भूल जाया करती थी। उसके जीने की वजह सिर्फ और सिर्फ बिन्नी थी। पलकें झपकाती हुई तोतली ज़ुबान से वह दुनिया जहान की बातें कर लेती और पायल, चाहे समझ आए या न आए, उसकी बातों से अपने दिन काट लेती। पायल और प्रेम का साथ तीन साल का रहा, सिर्फ तीन साल और उन तीन सालों में पायल ने 'जीने' का मतलब समझा। इश्क़ को जाना। इश्क़ कैसे विद्रोही बना देता है यह सब उसने देखा-महसूस किया। हफ्ते-दस दिनों में प्रेम-पायल एक दूसरे से ऐसे जुड़े कि फिर अलग नहीं हो सके।
पायल का बचपन समुद्र की लहरों के साथ बीता था। जवानी की दहलीज पर जब उसने कदम रखा तब ये लहरें उसकी दोस्त बन गईं। सुबह सुबह जब फेनिल लहरें सफ़ेद चादर सी बिछी होतीं, पायल बौराई सी उन पर दौड़ लगाती। उन लहरों से उसकी पक्की वाली दोस्ती थी... और सागर से रोज़ मिलने का अनुबंध। जिस दिन उनसे मुलाक़ात नहीं होती इसे अपनी दिनचर्या में कमी लगती, एक खालीपन महसूस होता। शाम ढलने से कुछ घड़ी पहले अपनी साइकिल से वह समुद्र तट तक आती। साइकिल को किनारे खड़ी कर के आलथी-मालथी मार कर आँखे बंद कर बैठ जाती कि जैसे किसी तपस्या में लीन होने से पहले की तैयारी हो। अँधेरा घिर आता तो भी किनारे पर बैठी आंखें बंद किये लहरों के शोर सुनती। कभी-कभी पास आकर लहरें हौले से छू जाती...और वह हँस पड़ती। उन लहरों से वह बातें करती, आखिर उससे पक्की वाली दोस्ती जो थी। वे कभी उसे उछालतीं तो कभी दूर भाग जातीं, कभी झूला झूलाती तो कभी पैरों को निथार जातीं। इस दुनिया में पायल का और तो कोई नहीं था बस ये लहरें ही उसकी अपनी थीं। दिन-भर होम डिलीवरी का काम और रात में पढ़ाई। सुबह और शाम उसकी अपनी थी, जिस पर सिर्फ उसका अधिकार था। यूँ तो सूर्य का आना और जाना दोनों ही उसे बेहद प्रिय था। उस दौरान जो आसमां की रंगत होती, हर बार नई लगती, अनोखी लगती, जादुई लगती, लेकिन समुंदर के किनारे बैठ कर सूर्यास्त देखना उसका पसंदीदा शगल था। इस दौरान आसमां और लहरें अपनी खूबसूरती के चरम पर होते...और फिर अचानक सबकुछ ख़त्म...यहां से वहाँ तक घुप्प अँधेरा... इस थोड़े से समय में पूरी ज़िन्दगी दिख जाती। बचपन की उपेक्षा से लेकर अब तक का संघर्ष और हर रोज़ ज़िन्दगी को जोश के साथ जीने की जीवटता...पायल की ज़िंदगी यही थी।
उस रोज तेज़ बारिश हो रही थी। पायल का सागर के पास पहुंचने का समय निश्चित था और अटल भी। वह रेनकोट पहने साइकिल पर सवार समुद्र तट तक पहुंची तभी साइकिल फिसल कर पलट गई और वह चारो खाने चित्त। वह पूरी तरह भीग चुकी थी और कांप भी रही थी। प्रेम दोस्तों के साथ वहीं बीच पर बने शैक्स में बियर और प्रॉन का मज़ा ले रहा था। शैक्स के कानफोड़ू संगीत और जगमग रौशनी में जैसे सबकुछ जोश और रंगीनियत से भरा हुआ था।
शाम धुंधलाने लगी थी। बारिश थम चुकी थी। लाल टॉप और आसमानी जीन्स में पायल दूर से नज़र आ रही थी। प्रेम की नज़र उस तक गई और वहीं जाकर थम गई। पायल अपने दोनों हाथों से दोनों घुटनों को बांधे हुए चेहरे को अपने घुटनों में छिपाए बैठी हुई ऐसी लग रही थी जैसे कोई शिला तराशे जाने के लिए किसी शिल्पी के इंतज़ार में हो। अचानक घुप्प अंधेरा हो गया और वह प्रेम की नज़रों से ओझल हो गयी। प्रेम को ऐसा लगा जैसे कोई उसकी अपनी पसंदीदा चीज़ खो गयी हो। वह बौखला गया। कुछ टूबोर्ग स्ट्रांग का सुरूर कुछ हार्मोन्स का असर, वह बिल्कुल पागल हो उठा और भागता हुआ उस ओर गया जहां अंधेरा छाने से पहले वह बैठी हुई थी। वहां अब कोई नहीं था। वह आँखे फाड़-फाड़ कर इधर उधर उसे ढूंढने की कोशिश कर रहा था पर वह कहीं नहीं थी।
अँधेरे में चमकते रंग-बिरंगे रेडियम के ब्रेसलेट बेचते बच्चे उसके पीछे पड़ गए। "10 रुपये की दो दे देंगे, भइया ले लो।" उन्हें 50 रुपये थमाकर वह आगे बढ़ा। पास में ही सिंकते हुए भुट्टे की सोंधी खुशबू, बारिश और समुद्र की गीली महक के साथ जुगलबंदी कर रही थी। कुछ जोड़े भुट्टे खरीद रहे थे। एक बांसुरी वाला बांसुरी पर झूम-झूम कर बजा रहा था -
“ये मौसम की बारिश ये बारिश का पानी….”
बच्चे और किशोर उस बांसुरी वाले को घेरे हुए थे। लहरों की आवाज़ के बीच गार्ड की हिदायती सीटी एक अलग रीमिक्स पैदा कर रही थी। शाम ढल चुकी थी। रात घिर आयी थी पर समुद्र तट पर रौनक बरकरार थी। प्रेम सबके चेहरे पहचानने की कोशिश कर रहा था। उन चेहरों में वह एक चेहरा नहीं था जिसके मोहपाश में बंधा वह बौराया फिर रहा था। कच्ची उम्र में ही पहली नज़र में प्रेम होने की गुंजाईश ज्यादा होती है। ये प्यार है या आकर्षण, प्रेम समझ नहीं पा रहा था। दिमाग, सोच, किसी चीज़ पर उसका काबू नहीं था।
कॉलेज का फाइनल एग्जाम देने के बाद वह छुट्टियां मनाने दोस्तों के साथ गोआ आया था। बस यहीं से उसकी कहानी में पायल जुड़ गई। उस शाम एक झलक देखने के बाद फिर किसी और लड़की को देखने की उसे फुर्सत ही नहीं रही। अगले दिन पायल के इंतज़ार में प्रेम सुबह से उसी शैक्स पर जा बैठा। चिलचिलाती धूप, सागर की लहरों पर अठखेलियाँ कर रही थी। हवा में एक अजीब सी महक थी। महक से उबकाई आ रही थी पर पायल की झलक पाने की उम्मीद में ये सारी परेशानियां छोटी थीं।
बेकल मन से प्रेम गिटार के तार छेड़ रहा था। नज़रें सागर के तट पर आते जाते हर शख्स के चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रही थी। दिन बीतने के साथ प्रेम को निराशा हाथ लगी। दोस्त जबरन उसे होटल ले गए। होटल क्या था, घर था जिसे इनलोगों ने पंद्रह दिनों के लिए किराए पर ले रखा था।
कोई तो तार जुड़ गया था उस लड़की से…कुछ तो बात थी उसमें जो अजनबियों के बीच उस पर निगाह टिक गई और ऐसी टिकी की होश हवास सब गुम हो गए। पूर्व जन्म का कोई नाता था...या पहली नज़र का प्यार। कुछ तो बात थी। रात उनींदी रही। सुबह मौसम सुहाना हो रहा था। प्रेम फिर से गिटार लेकर समुद्र के किनारे पहुंच गया। आज सागर की महक उसे भा रही थी। मद्धम हवा, इक्के दुक्के लोग वहां नज़र आ रहे थे। वहीं किनारे बैठकर वह गिटार बजा रहा था तभी उसकी नज़र लहरों पर दौड़ लगाती, नाचती पायल से टकराई। वह स्तब्ध रह गया। नीले हॉट पैंट और सफेद टॉप में वह मासूम, प्यारी लग रही थी, एकदम पवित्र। उसके कमर तक लंबे बाल खुले हुए थे और हवा से बेतरतीब हो रहे थे जिन्हें सर झटक कर वह बार-बार ठीक करने की कोशिश कर रही थी। वह उसे पहले तो निहारता रहा और फिर उसके पास जाकर खड़ा हो गया। वह सकुचा कर पीछे हट गई। प्रेम ने गिटार बजाते हुए गाना शुरू किया "love me like u do, touch me like you do" वह अपने साईकिल की ओर बढ़ी। वह उसकी साईकिल के सामने घुटनो पर बैठ कर प्रेम की गुहार लगाने लगा । पायल एकदम घबरा गयी। उसकी आँखों में आंसू छलकने लगे। वह जाने लगी। घबराहट में उसकी साइकिल की चेन भी उतर गई। वह रोने लगी। प्रेम ने चिल्लाकर कहा "अगर सोचने के लिए समय चाहिए तो ले लो, पर इन दो दिनों में मेरी स्थिति का अंदाज़ा नहीं लगा सकती। सुनो मेरा नाम प्रेम है और मैं… मैं तुम्हें प्रेम से ही रखूंगा। अगर मेरी बातों पर ज़रा सा भी यकीन हो तो मैसेज ज़रूर करना।" चिल्लाकर प्रेम ने अपना मोबाइल नम्बर बोला। वह साईकिल पर बैठी और देखते-देखते नज़रों से ओझल हो गई। दूसरे दिन वह नहीं आई और ना ही कोई मैसेज आया। एक-एक दिन कर के पूरा हफ्ता बीत गया पर न वह आयी और न ही उसका मैसेज आया। प्रेम हर रोज़ उसी तट पर जाकर गिटार बजाता और इंतज़ार करता।
सारे दोस्त मिलकर प्रेम का मज़ाक उड़ाने लगे थे। छुट्टियां खत्म होने में अब हफ्ता भर और रह गया था। एक रोज़ रात में उसके मैसेज बॉक्स में एक मैसेज आया "रात की रानी की खुशबू से रात तर - बतर हुई जाती है। दिन में वह रानी खुशबू समेट कहाँ छिप जाती है? मानो न मानो लेकिन कुछ लोगों को अंधकार ही सोहाते हैं...और कुछ रिश्तों को भी!" मैसेज के नीचे बारीक अक्षर में नाम लिखा था 'पायल'। प्रेम को समझते देर नहीं लगी कि ये मैसेज उसी का है और उसका नाम पायल है यानी लड़की ने पहला कदम बढ़ा दिया। वह खुशी से पागल हुआ जा रहा था। उसने दोस्तों को मैसेज दिखाया। दोस्तों ने उस मैसेज का 'ऑपरेशन' कर दिया। निष्कर्ष निकालने के बाद प्रेम को आज्ञा दी गई कि बिना देर किये मैसेज का जवाब दे दिया जाए। प्रेम ने भी दोस्तों के सहयोग से उसी लहजे में लिखा "आओ कि दिन के उजाले में रिश्तों को एक नाम दे दूं, आओ कि तुम्हारी पलकों पर कुछ हसीं ख्वाब बो दूं, आओ आज तुझे अपनी दुल्हन बना लूं।"
"आप मेरे बारे में जानते ही क्या हो? बिना जाने प्रेम हो सकता है, शादी नहीं।"
"सागर सा गहरा प्यार है मेरा आजमा के तो देख,न छोडूंगा दामन पास आकर तो देख।
अपने बारे में बताओ। किससे तुम्हारा हाथ मांगना है वह भी बताओ। "
" मेरे माता-पिता नहीं हैं। मैं यहां बिल्कुल अकेली हूँ। मेरा साथी समुंदर है। मेरी बहनें मच्छलियां है। मेरी कमाई मेरी सायकिल है। बचपन से किशोर होने तक एक अनाथालय में रही। अब अपने पैरों पर खड़ी हूँ, साथ ही पढ़ाई भी कर रही हूँ। एक कमरे का छोटा सा घर है।"
" मेरे घर पर मेरे पेरेंट्स हैं। पिता जी सरकारी नौकरी में हैं। अपना घर है। पैसे की कमी नहीं है। मैं इकलौता औलाद हूँ। तुम आ जाओगी तो घर मे खुशहाली आ जाएगी।"
"और…?"
"और क्या जानना? प्राइमरी से बॉयज स्कूल में पढ़ा हूँ। मेरी कोई गर्ल फ्रेंड नहीं है… और कुछ जानना है?"
स्माइली के साथ पायल ने लिखा " माता -पिता, रिश्तेदारों को तो समस्या हो सकती है।"
" मुझ पर भरोसा रखो और प्लीज यार जब तक यहां हूँ मुझसे मिल लिया करो।"
दूसरे दिन पायल प्रेम से मिलने आई और इसी मुलाक़ात ने उसके जीवन को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया। प्रेम ने अपनी छुट्टी हफ्ते भर के लिए और बढ़ा दी। हफ्ता भर साथ-साथ समय व्यतीत करने के बाद दोनों ने तय कर लिया कि उन्हें विवाह के बंधन में बंध जाना चाहिए। प्रेम के दोस्त उनके विवाह के गवाह बने। प्रेम ने पायल को भरोसा दिलाया कि घर पर सब कुछ ठीक होते ही वह उसे अपने पास बुला लेगा। तब तक उन दोनों को यूं ही दूर रहना होगा। पायल तैयार हो गई। कम दिनों में ही दोनों का एक-दूसरे पर प्रेम और यकीन इतना पुख्ता हो गया था कि एक दूसरे के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे।
पायल के ज़िन्दगी में आते ही प्रेम के साथ सबकुछ अच्छा होने लगा। परीक्षा में अच्छे अंक मिले। प्रतियोगी परीक्षा पास कर अच्छी नौकरी मिल गयी, फिर भी हिम्मत थी कि जुटती ही नहीं जिससे घर में इन बातों को कह सके। पायल गोआ की थी और उस पर से अनाथ। माता-पिता-कुल-खानदान का पता नहीं। रिश्ते की अस्वीकार्यता से उसे डर लगता था। उचित समय के इंतज़ार में प्रेम ने घर में यह बात नहीं बताई। यूं ही हंसते-खेलते पलक झपकते साल बीत गया।
एक तरफ विवाह के लिए घर वालों ने प्रेम पर दबाव बनाना शुरू किया तो दूसरी तरफ बिन्नी, पायल की कोख में आ गई। प्रेम को घर पर अपने विवाह की बात अंततः बतानी ही पड़ी। घर में कोहराम मच गया। मां ने रोना-धोना शुरू कर दिया- "ये गोआ की लड़की, न जात का पता, न घर का पता। जाने कौन संस्कारहीन को ले आया? ज़रूर टोटका की होगी। प्रेम तो भोला है, तभी तो उसको फंसा ली। समाज को क्या मुंह दिखाएंगे।" पिता ने बातचीत करनी बंद कर दी। प्रेम अपनी बात पर अटल था। प्रेम की ज़िद के आगे आखिरकार पिताजी को झुकना पड़ा। उन्होंने पायल को घर लाने की इजाज़त दे दी। समय लगा पर धीरे-धीरे प्रेम के माता-पिता ने पायल को अपना लिया। पायल अलग संस्कृति, अलग रहन-सहन में पली थी। छुटपन से ही अकेले रहने के कारण आत्मनिर्भर थी। सारे काम खुद कर लेती थी। यहां घर में बहु बनकर रहना था। अलग परिवेश...अलग परिस्थितियां...अलग किरदार….एडजस्ट करने में मुश्किलें आ रही थीं। पायल बदल रही थी, धीरे-धीरे प्रेम के परिवार के आकार में ढलती जा रही थी। सच्चा प्रेम हर किसी को बदल देता है। बीते वक़्त के साथ उसने भी खुद को प्रेम के घरवालों के अनुसार ढाल लिया।
जब बिन्नी आयी तो रहे-सहे शिकवे भी खत्म हो गए। बिन्नी की एक मुस्कान के लिए सारा घर एक पांव पर खड़ा रहता। कभी हल्की खट-पट भी होती तो प्रेम अपनी चुहल और पायल अपनी समझदारी से उसे सुलझा लेते। प्रेम की मां से पायल की ट्यूनिंग अच्छी बनने लगी थी। हर पर्व-त्योहार पूरे जोश और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता। प्रेम के माता-पिता को लगता जैसे बिन्नी को सारी खुशियाँ किसी तरह दे दें। घर में खिलखिलाहट गूंजती रहती, रौनकें बनी रहतीं।
इन खुशियों की उम्र कम निकली। एक रात प्रेम के सीने में तेज दर्द उठा और देखते-देखते दिल ने सांस का साथ छोड़ दिया। पलक झपकते पायल की ज़िंदगी बदल गई। सबकुछ झेलना बहुत मुश्किल था। प्रेम के जाने के बाद लोगों के स्वभाव और नज़रिया में भी परिवर्तन आने लगा। पायल हरसंभव प्रयास करती कि बदलती आबोहवा का असर उसकी बच्ची पर ना पड़े। दिन भर घर के काम से निबटने के बाद उस एक कमरे में दोनों माँ-बेटी अपने-अपने हिस्से की खुशियां आपस में बांट लेतीं। उस कमरे में प्रेम की सुगंध अब भी बरकरार थी। यूं तो घर के कोने-कोने में प्रेम की हंसी, उसके कहकहे, उसकी बातें अक्सर गूंजती-सी लगती, जैसे कल की ही बात हो, जैसे वह कहीं गया ही न हो, अब भी साथ-साथ हो। बस अभी मां के कमरे से निकलेगा और चुपके से पायल के गालों में चिकोटी काट कर पापा के पास चला जाएगा और पायल फिर होठों को दांतों से काटती मन में मुस्कुराकर रह जाएगी। प्रेम की छेड़खानियां, उसकी छुअन...आह! ईश्वर कितना निष्ठुर होता है। दुख देता है तो देता चला जाता है। प्रेम को गले लगाने, उसके स्नेहिल स्पर्श, उसकी एक पुकार सुनने के लिए मन व्यग्र हो उठता।
कभी-कभी बिन बात की सिसकियां ऊंघती रात की चुप्पी को झिंझोड़ कर जगा देती। बिन बात की सिसकियां, बिन आंसू की सिसकियां। मन-मस्तिष्क की तपिश को कम करने के लिए ये सिसकियां भी ज़रूरी हैं। प्रेम के बाद पायल की हमसफ़र ये सिसकियाँ ही थीं। वक्त-बेवक्त आकर एहसास दिलाती कि जीवन का यह बोझिल सफर अकेले काटना है।
मुश्किलें आती हैं तो आती चली जाती हैं। पिताजी भी रिटायर्ड हो गए। घर चलाने के लिए पायल को नौकरी चाहिए थी। कुछ समय के संघर्ष और भागदौड़ के बाद पायल को एक प्राइवेट बैंक में सेल्स की नौकरी मिल गई। देखते-देखते पूरे घर की ज़िम्मेदारी पायल के ऊपर आ गई। बिन्नी ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। घर के काम को समय पर पूरा करते हुए ऑफिस के हर चैलेन्ज, हर टारगेट को पूरा करने में पायल ने खुद को झोंक दिया था। घर और ऑफिस की जिम्मेदारियों को निभाते हुए हेक्टिक शेड्यूल में से भी पायल बिन्नी के लिए समय चुरा ही लेती। प्यार वाली लड़ाई चलती, फिर मनुहारों का दौर भी चलता। बिन्नी के लिए उसकी मम्मा आज भी वही सिंड्रेला की कहानी वाली परी थी जो छड़ी घुमाते ही उसकी हर विश पूरी कर देती। लाड़ में आती तो अक्सर 'परी मम्मा' बोलने लगती और तब पायल जाकर उसके दोनों गालों को खींच कर उस पर जोर से चिकोटी काट लेती बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी प्रेम उसके साथ किया करता था और फिर छलकती आंखों से उसके माथे को चूम लेती जैसे प्रेम को चूम लिया हो।
बिन्नी पूरे परिवार के आंख का तारा थी। दादा-दादी भी बिन्नी के बगैर नहीं रह पाते थे। घर मे फिर से खुशियां लौट रही थीं। बिन्नी की दोस्तों से घर गुलज़ार रहने लगा था। प्रेम के माता-पिता प्रेम के बचपन को बिन्नी के साथ एक बार फिर से जीने लगे थे। परिवार और नौकरी के बीच संतुलन कायम करती पायल की गाड़ी सरपट दौड़ रही थी। अपने अकेलेपन को पायल ने कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया था, बल्कि इसने पायल को और दृढ़ और मजबूत ही बनाया था। उसने अकेले जीना एक बार फिर से सीख लिया था, हालांकि प्रेम के माता-पिता उसके दर्द से नावाकिफ हों, ऐसा नहीं था। उन्होंने उसके सामने दूसरे विवाह का विकल्प भी रखा, किंतु पायल ने मना कर दिया। "पहले आप प्रेम के माता-पिता थे, अब मेरे माता-पिता हैं और ज़िम्मेदारी भी। बचपन से मां-पापा के प्यार से महरूम रही हूँ। अब जो मिल रहा उसे मत छीनिये।" यही पायल का जवाब था, इसके बाद उन्होंने उसे कभी कुछ नहीं कहा।
पायल की मेहनत और लगन का असर यह हुआ कि उसे लगातार पदोन्नति मिलती गयी और वह एक अच्छे पद पर पहुंच गई। उधर बिटिया का दाखिला भी मैनेजमेंट कॉलेज में हो गया। पद की ऊंचाई अक्सर अपनों के लिए दिए जाने वाले वक्त को छीनकर बनी सीढ़ियों से होकर गुजरती है। पायल की भी व्यस्तता बढ़ गयी थी। बिन्नी मां को, उसकी परेशानियों को समझती थी। वह पायल को समझाती "अब आपको मेरे लिए ज़्यादा फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है मम्मा। मैं अब बड़ी हो गई हूँ। अब मैं आपकी फिक्र करूंगी।" पायल उसकी बातों पर हँस पड़ती। बिल्कुल प्रेम की कॉपी होती जा रही थी बिन्नी। देखने में, समझाने में, हंसाने में और...और ज़िद में भी।
काम का तनाव और मानसिक दबाव पायल के लिए दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। एक रोज़ पायल ऑफिस के अपने केबिन में ही बेहोश होकर गिर पड़ी। उसके नाक से खून आ रहा था। आनन फानन में ऑफिस के सहयोगी उसे अस्पताल ले गए। उच्च रक्तचाप की वजह से मस्तिष्क में ब्लड क्लोटिंग हो गई थी। डॉक्टर ने तुरंत आपरेशन की सलाह दी। पायल के घर पर इन घटनाओं की सूचना दी जा चुकी थी, पर उनके आने में समय लगता। इधर डॉक्टर जल्दी आपरेशन का दबाव बना रहे थे। समस्या ये थी कि इस ऑपरेशन की ज़िम्मेदारी कौन ले? 'कन्साइनमेंट फॉर्म’ पर कौन हस्ताक्षर करे? इसी उहापोह के बीच आरव आगे बढ़ा। उसने फॉर्म पर सिग्नेचर किये। डॉक्टर्स, पायल के आपरेशन में जुट गए।
आरव ऑफिस में पायल के अधीन काम करता था। मेहनती और ईमानदार। तीस -पैंतीस की उम्र होगी। आँखों पर मोटा चश्मा चढ़ चुका था। सिगरेट की इतनी बुरी लत कि उसकी महक उसके बदन में बस गई थी। माँ का देहांत बचपन में हो गया था और पिता एक साल पहले लंबी बीमारी से गुज़र गए। अब वह अकेला था। कम उम्र में नौकरी लग गई तो शादी के बारे में कभी सोचा नहीं। उसका पैशन, उसका प्यार उसकी नौकरी, सिगरेट, पुस्तकें और गिटार थीं जिसे अक्सर खाली समय में वह बजाया करता।
पायल को ऑपरेशन के लिए ले जाया गया। घण्टा भर रहने के बाद ऑफिस के सहयोगी घर लौटने लगे, पर आरव वहीं टिका रहा। कुछ ही घंटों में बिन्नी और उसके दादा जी भी अस्पताल पहुंच गए। आरव फिर भी घर नहीं गया। बिन्नी और आरव में दोस्ती हो गई। आरव उसी कॉलेज से एमबीए किया था जहां फिलहाल बिन्नी पढ़ रही थी।
उसने बिन्नी और उसके दादाजी के सोने का इंतज़ाम कर दिया और खुद रात भर जागता रहा। आंखों-आंखों में रात कट गई। आपरेशन सफल रहा। पायल को होश आ गया था। बिन्नी पायल से जाकर मिली। हफ्ते भर तक हॉस्पिटल से घर जाने की इजाज़त नहीं मिली। हॉस्पिटल में दिन भर बिन्नी रहती और रात में आरव रुक जाता। आरव ने ऑफिस में भी पायल की सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी। अस्पताल में लगातार साथ रहने से आरव का पायल से एक बॉन्ड बन गया। बिना कहे वह पायल की बातों को समझ लेता। उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें उसके मांगने से पहले उसके सामने होतीं। पायल को अस्पताल से डिस्चार्ज मिल गया। वह घर आ गई तब भी आरव का उसके घर आना - जाना लगातार जारी था। कभी ऑफिस अपडेट देने के लिए तो कभी दवाईयां पहुंचाने। आरव ऑफिस का काम खत्म करके सीधा पायल के घर चला जाता।
धीरे-धीरे आरव की उस परिवार से घनिष्टता इतनी बढ़ गई कि घर में किसी चीज़ की ज़रूरत हो आरव ही याद आता। पायल को उसका इस कदर घर में घुसपैठ करना अच्छा नहीं लग रहा था पर वह फिलहाल कुछ भी करने में असमर्थ थी। उसे भी आरव की आदत होती जा रही थी। पायल के प्रत्येक कार्य मे आरव साथ-साथ रहता। वह पायल के साथ ही घर का भी पूरा ध्यान रखने लगा था । माँ-पिताजी की जरूरतें, बिन्नी को कॉलेज ले जाना, वहां से ले आना। आरव, पायल के जितना करीब आ रहा था, बिन्नी उससे दूर होती जा रही थी। उन दोनों की नजदीकी बिन्नी को बिल्कुल रास नहीं आ रही थी। एक दिन बिन्नी ने पायल से इधर उधर की बात करने के बाद पूछ ही डाला "मम्मा ये आरव सर आपको कैसे लगते हैं?" पायल ने सवालिया नज़र से उसे देखा। "नहीं मम्मा आपके आफिस के लोग कह रहे थे कि आप दोनों शादी करने वाले हैं!" पायल का चेहरा सफेद पड़ गया। फिर भी संयत होते हुए उसने पूछा "किसने कहा तुमसे?" "वो छोड़ो, पर मेरी प्यारी परी मम्मा आप उनसे शादी-वादी मत करना। मैं मेट्रीमोनियल साइट पर आपकी प्रोफाइल डाल देती हूँ। अच्छे लड़के मिल जाएंगे।" "पागल हो गई है। ये सब फितूर तेरे दिमाग में कहां से आया। तू कॉलेज पढ़ने जाती है या यह सब करने?" "मम्मा आरव सर मेरे कॉलेज से हैं। मेरे सुपर सुपर सीनियर। मेरे फ्रेंड्स मुझ पर हँसेंगे।" "अरे मेरी नन्ही चिड़िया, इतना न सोच। पढ़ाई पर ध्यान लगा। मेरी बीमारी में आरव ने मेरी इतनी देखभाल की। हम सब के साथ इतना घुलमिल गया है, इसलिए लोग बकवास करते हैं। सुन जो लोग इस तरह किसी भले आदमी पर तमाम तोहमतें लगाते हैं, ये तो तय है वे अच्छे और तुम्हारे शुभचिंतक तो नहीं होंगे। रात गहरा चुकी है, अब सो जाओ।" बिन्नी को सुलाकर पायल सोने की कोशिश करने लगी। उलझे-उलझे मन को सुलझाने की कोशिश में रात आंखों में ही कट गई।
महीने भर के आराम के बाद पायल ऑफिस भी जाने लगी। सब कुछ नार्मल हो गया था, एब्नार्मल सा कुछ था तो वह था आरव के साथ उसका व्यवहार। वह बिना किसी स्वार्थ के उसके परिवार के लिए इतना कुछ कर देता था कि पायल उसके साथ पहले की तरह एक बॉस जैसा व्यवहार नहीं कर पाती थी। आरव उम्र में उससे बहुत छोटा था और अनुभव में भी, पर अपने कर्म से वह उसकी नज़र में बहुत बड़ा बन चुका था। आरव पायल का विशेष ध्यान रखने लगा था। उसे समय पर भोजन, दवाई, आराम मिल सके इसका विशेष ध्यान रखता था। धीरे-धीरे ऑफिस में इन दोनों को लेकर कानाफूसी होने लगी। बात बढ़ी और हँसी-मजाक तक पहुंच गई। उड़ती हुई ये बातें आरव के कानों तक भी पहुंची। उसकी पदोन्नति, उसकी तारीफ, हर सफलता को पायल के साथ उसके रिश्ते से जोड़ा जाने लगा था। शुरू में उसे बहुत गुस्सा आता था, वह विरोध करता था, सफाई देता था, फिर उसने यह सब करना छोड़ दिया और हँस कर इन बातों को टालने लगा। आरव ने पायल की ओर बढ़ते कदम को रोकने की भी बहुत कोशिश की पर दिल मानने को तैयार नहीं था।
मन बलून की तरह ही तो होता है, जैसे बलून में एक सीमा के बाद हवा भरने पर उसके फटने का डर होता है ठीक उसी तरह मन भी एक सीमा तक ही बर्दाश्त कर सकता है। एक रोज़ जब बर्दाश्त करने की हद पार हो गई, आरव ने पायल को सबकुछ बता दिया। पायल का चेहरा सुर्ख हो गया। उसने अपनी झेंप मिटाते हुए बात बदलने की गरज से ऑफिस की दूसरी बातें करनी शुरू की किन्तु आरव उन बातों को नजरअंदाज कर पायल के चेहरे पर नज़रें जमाते हुए आहिस्ता से पूछा "क्या आप मुझसे शादी करेंगी?" पायल फट पड़ी "तुम्हारी बॉस हूँ मैं। उम्र में भी तुमसे दो-एक नहीं पूरे सात साल बड़ी हूँ। मेरी बेटी, प्रेम की यादें, माँ- पापा ये सब हैं मेरे साथ...और...।" "और…" बाएं हाथ के लंबे नाखूनों पर चढ़ी हल्की गुलाबी नेल पॉलिश को खुरचते हुए वह फुसफुसाकर बोली "अब मुझे अपनी बेटी की शादी भी तो करनी है, बिन्नी की खुशियों के बारे में सोचना है, खुद के बारे में नहीं।" पायल भीगे स्वर में आरव से बोली या खुद से यह उसे समझ नहीं आया और फिर चुप होकर वह कुछ सोचने लगी।
" प्रेम उम्र, जाति और धर्म देखकर होता है क्या? एक बार फिर से सोचना पायल। मैं तुम्हारी इस 'हां' का इंतज़ार ताज़िन्दगी कर सकता हूँ।" इतना कह कर वह उठा, सिगरेट सुलगाई और फूंकता हुआ चल पड़ा। प्रेम ने भी तो इसी तरह उसके जवाब का इंतज़ार किया था। अचानक उसके ज़ेहन में प्रेम की वो तमाम बातें ताज़ा हो आयीं। कैसे उनके प्यार की शुरुआत हुई थी, कैसे विवाह हुआ, घर, विवाद, अस्वीकार्यता, फिर स्वीकार किया जाना। सारी घटनाएं किसी फिल्म की तरह आंखों के आगे से निकलने लगीं। पायल का संयम टूट गया वह रोई और खूब रोई, फूट-फूट कर रोई। वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर ये रोना क्यों आ रहा? अपनी बेबसी पर, प्रेम की यादों को लेकर...! मन में एक छटपटाहट सी होने लगी। मन बेचैन हो उठा। वह प्रेम की तस्वीर से बातें करने लगी। "तुम्हारे अलावा मेरे जीवन में कोई और नहीं आ सकता, कभी नहीं आ सकता। प्रेम...मेरे प्रेम किसी को मत आने देना...किसी को मत आने देना।" आंखों की बरसात रुकने का नाम नहीं ले रही थी। वह समझ रही थी कि ऐसे तो उसकी तबियत फिर से खराब हो सकती है पर खुद को रोक नहीं पा रही थी। आंसुओं का यह कर्ज जाने कितने दिनों से बकाया था। आज सारी कसर पूरी हो गई। रह-रह कर आंखें भींग रही थीं।
इंसानी फितरत है जब किसी चीज़ का विरोध होता है तो उसके प्रति आसक्ति और बढ़ने लगती है। रिश्ते का विरोध होता है तो प्रगाढ़ता बढ़ती है। दिल से ये रिश्ते मजबूत हो चुके थे, पर बिन्नी और फिर आरव की बातों से पायल घबरा गई थी, इसलिए उसने एक निर्णय लिया। एक दिन आफिस में ही बड़ी हिम्मत जुटाकर पायल ने आरव से कहा "हमें एक-दूसरे के व्यक्तिगत मामले से दूर रहना चाहिए।" आरव बिना कुछ बोले उठा और सिगरेट सुलगाता वहां से चला गया । उसके बाद भी दोनों साथ काम करते, एक दूसरे की सहायता करते, एक दूसरे का ख्याल रखते, पर खामोशी से। पायल घर में गुमसुम रहने लगी थी। आरव का पायल के घर पर आना पहले कम हुआ फिर बन्द हो गया। जो दिल पहले प्रेम के सामीप्य के लिए तरसता था वह अब आरव के लिए तरसने लगा था। प्रेम का वियोग तो पायल झेल गई थी, पर आरव का पास रहकर भी पास न रहना उसे जलाए जा रहा था। शाम के समय आरव की कमी उसे और खलती।
उस शाम सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था। कुछ बादल आसमान में हिचकोले खा रहे थे। पायल गुमसुम सी बैठी दूर क्षितिज को देख रही थी या सोच रही थी ये स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। तभी मोबाइल पर मैसेज फ़्लैश हुआ "रुसवाईयाँ न हो, सिर्फ इस शर्त पर यूँ जीने की सजा, मुझे मंजूर है।" ये आरव का मैसेज था। उसे प्रेम की याद आ गई। इन दिनों आरव की हरकतें प्रेम जैसी लगने लगी थीं। उसके संदेश, गिटार बजाना, हंसाना, ध्यान रखना...सबकुछ प्रेम की तरह, जैसे प्रेम का ही दूसरा जन्म हो। किसी अनजान शक्ति से वशीभूत पायल ने भी जवाब में लिख दिया
"ये रात अक्सर मुझ-सी लगती है,और बादल कुछ- कुछ, तुम-सा !
हँसता बादल, उदास रात,आज मिले हैं, बरसों बाद।"
आरव का कोई जवाब नहीं आया। पायल को अपने लिखे पर गुस्सा आने लगा। ये क्या कर बैठी? आरव जाने क्या सोचेगा? कहीं कुछ गलत तो नहीं समझ लेगा। उसने घबराकर फोन स्विच ऑफ कर दिया और रूम में आकर खुद को इधर-उधर के कामों में व्यस्त करने लगी, पर दिल धौंकनी की तरह तेज़ धड़क रहा था। मन में कचोट हो रही थी। दूसरे दिन ऑफिस में हमेशा की तरह आरव और उसके बीच कोई संवाद नहीं हुआ पर पायल की हर ज़रूरतों पर आरव का पूरा ध्यान था । शाम में फिर से आरव का मैसेज आया "पलकों ने चुपके से एक बोसा पेशानी पर रख दिया, आंखों का आब तिल बनकर माथे पर चिपक गया।" पायल ड्रेसिंग टेबल में लगे आईने के सामने खड़ी हो गई और ललाट को ध्यान से देखने लगी। उसकी ललाट पर नाक की सीध में, बिल्कुल बिंदी वाली जगह पर एक छोटा सा तिल था जो अक्सर बिंदी का भ्रम भी पैदा करता था। एक बार प्रेम ने तो बिंदी के भ्रम में उसे उखाड़ने की भी कोशिश की थी। वह कितना हँसी थी...एक मुस्कान उसके होंठों पर थिरकने लगी। अगले ही पल उसकी आंखें भींग गयी। उसने सोच रखा था आज तो जवाब बिल्कुल नहीं देगी, लेकिन उससे रहा नहीं गया और उसने जवाब दे ही दिया "शबनम फिर शाखों को भिगोएँगी, देखना फिर एक बार रात रोएगी।"
पूरे चाँद की रात में वह घर के बाहर लॉन में टहल रही थी। मन विचलित था। हवा मन से प्रतियोगिता करती हुई तीव्र, अति तीव्र गति से दौड़ लगा रही थी। पायल को रह-रह कर ऐसा लग रहा था कि लॉन में लगे अमलतास के पीछे शायद किसी की छाया है। गिटार पर वही धुन "love me like u do, touch me like you do" ये सच है या भ्रम? प्रेम...नहीं-नहीं आरव…ओह! यहां से वहां तक कोई भी तो नहीं। तभी मोबाइल पर मैसेज फ़्लैश हुआ। पायल ने देखा, आरव का मैसेज था। उसने चोर नज़रों से आस पास नज़रें दौड़ाई कोई देख तो नहीं रहा। छिटकी चांदनी और तेज़ हवा में लहराते वृक्षों और खड़खड़ाते पत्तों के सिवाय दूर-दूर तक कोई भी नहीं था। वह आश्वस्त होकर मैसेज बॉक्स खोली और आरव का संदेश पढ़ने लगी "शीतल चांदनी पेड़ों की ओट से थिरकती हुई तुम तक पहुंच रही है। उस चांदनी के रंग से मिलकर तुम्हारे चेहरे की रंगत और पवित्र दिख रही है। ऐसा लग रहा जैसे कोई स्निग्ध दूधिया सा आभामंडल तुम्हारे इर्द गिर्द हो। तेज़...आह! इस तेज़ में मैं तुम्हारे चेहरे के भाव नहीं पढ़ पा रहा पायल। महानता के उस शिखर पर क्यों जाना, जहां से तुम...तुम न रहो। तुम्हारे जिस्म और रूह के बीच परस्पर संवाद ही समाप्त हो जाए? बिन्नी भी एक स्त्री है। स्त्री मन को समझेगी, पर वहां मां बनकर नहीं एक स्त्री बनकर उसे समझाना होगा। शायद तुम मेरी मनः स्थिति समझ सको! मुझे अपने परिवार में शामिल कर लो या तुम मेरे…’हमारे’ घर आ जाओ। जिस परिस्थिति में हम दोनों जी रहे उससे दोनों की उम्र कम हो जाएगी। ज़्यादा दिन हम जी नहीं पाएंगे।" थरथराती उंगलियों से पायल ने मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया। सिसकियां फिर से उसकी हमसफ़र बन गयी थीं। वह अपने कमरे में आ गई । टेबल लैंप की हल्की पीली रोशनी फैली हुई थी। शायद बिन्नी पढ़ते-पढ़ते सो गई थी। किताब अब भी उसकी हाथों में था और वह खुद बिस्तर पर थोड़ी बैठी, थोड़ी लेटी थी। पायल ने किताब उसके हाथों से लेकर करीने से मेज पर रख दिया। टेबल लैंप बुझा दी और उसे तकिए पर हौले से लिटा दिया। उसके सोए हुए चेहरे को अपलक निहारती रही और सोचती रही एकदम प्रेम की कॉपी है, फिर उसके माथे को चूमा और अपने बिस्तर पर आकर लेट गई। आंखों में नींद नहीं थी। उसने मोबाइल को ऑन किया और आरव को लिखा "सूरज के डूबने से पहले, शाम ढलने से पहले, फूलों के सूखने से पहले, पंछियों के घर लौटने से पहले...हम मिलेंगे हमसफ़र...हम ज़रूर मिलेंगे और अंतिम सफर साथ तय करेंगे।" अब उसके पर्स में प्रेम की जगह आरव की तस्वीर ने ले ली थी।
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https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब
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